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________________ अ०७/प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५४७ "बाबू जी! आप इतना भी नहीं सोच सकते कि यदि थेरावली वस्तुतः जाली होती और उसका मनशा आपके कथनानुसार होता, तो उसमें कुमारगिरि पर जिनकल्पिदिगम्बर साधुओं के होने का उल्लेख ही क्यों होता? खारवेल के लेख को श्वेताम्बरीय प्रकट करने का और कुमार तथा कुमारीगिरि पर अपना स्वत्व साबित करने के इरादे से यदि थेरावली का निर्माण हुआ होता, तो उसमें यह जिक्र क्या कभी आता कि कुमारीगिरि की गुफाओं में जिनकल्पी साधु रहते थे और कुमारगिरि पर स्थविरकल्पी? इसके अतिरिक्त खारवेल ने जो चतुर्विध संघ को इकट्ठा किया था, उसमें भी दो सौ जिनकल्प की तुलना करनेवाले साधुओं के एकत्र होने का जो निर्देश है, वह कभी होता? "यह आपत्ति कि "थेरावली में कतिपय उल्लेख ऐसे हैं, जो खारवेल के लेख में पहले अन्य रूप में पढ़े गये थे और अब वे नये रूप में पढ़े जाते हैं, उदाहरण के तौर पर 'खारवेल' यह नाम पहिले उपाधि मानी गई थी, परन्तु अब वह विशेष नाम साबित हुआ है। इसी प्रकार पहले 'बृहस्पतिमित्र' पुष्यमित्र का ही नामान्तर माना गया था, पर अब वैसे नहीं माना जाता।" परन्तु यह आपत्ति भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि अभी तक खारवेल का वह लेख पूरे तौर से स्पष्ट पढ़ा नहीं गया है, प्रत्येक बार विद्वानों ने उसमें से जो जो विशेष बात समझ पाई, वही लिख डाली है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अब इस लेख में कुछ भी संशोधन होगा ही नहीं, क्या आश्चर्य है कि प्रथम वाचना की जिन-जिन बातों को विद्वानों ने पिछले समय में बदला है उन्हीं को वे कालान्तर में फिर मंजूर भी कर लेवें? "दृष्टिवाद को दुर्भिक्ष के बाद व्यवस्थित करने का जिक्र इस लेख में और थेरावली में ही नहीं, किन्तु दूसरे भी अनेक प्रामाणिक श्वेताम्बर-जैनग्रन्थों में आता है।१२७ इस वास्ते इस विषय का लेखक का अभिप्राय भी दोषरहित नहीं है। "८. कुमारगिरि पर जिनमंदिर का पुनरुद्धार करके सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के हाथ से प्रतिष्ठा कराकर जिनमुर्ति स्थापित करने के सम्बम्ध में आप कहते हैं कि १२७. "नन्द और मौर्यकालीन दुर्भिक्षों का वर्णन और उस समय अव्यवस्थित हुए दृष्टिवाद की फिर व्यवस्था करने का विस्तृत वर्णन 'तित्थोगाली पइन्नय', 'आवश्यकचूर्णि' प्रभृति प्राचीनकालीन श्वेताम्बरग्रंथों में दिया हुआ है, और उसके बाद के दुर्भिक्षों में भी दृष्टिवाद की छिन्नभिन्नता और क्रमशः उसके विच्छेद होने के उल्लेख श्वेताम्बर-पट्टावलियों में मिलते हैं। इस वास्ते खारवेल के समय में दृष्टिवाद का संग्रह करने के विषय में जो हिमवत-थेरावली में उल्लेख किया गया है, वह असंगत मालूम नहीं होता।" लेखक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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