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५५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०२ "सुस्थित-सुप्रतिबुद्धि का समय निर्वाण से २९१ से ३२७ पर्यन्त था, इस वास्ते इनका खारवेल द्वारा प्रस्तुत सभा में शामिल होना किसी तरह असंगत नहीं है, यह बात पहिले कही जा चुकी है। उमास्वाति और श्यामाचार्य में से श्यामाचार्य तो खारवेल के समकालीन थे, इसमें कुछ भी शंका नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बरजैन-पट्टावलियों में श्यामाचार्य के युगप्रधानत्वकाल का प्रारंभ नि० सं० ३३५ से माना गया है और जिस समय उन्हें युगप्रधान का पद मिला, उस समय उनको दीक्षा लिए ३५ वर्ष हो चुके थे। इस वास्ते श्यामाचार्य के खारवेल की सभा में शामिल होने में कोई विरोध नहीं है। अब रही उमास्वाति की बात, सो यह बात अवश्य विचारणीय है। यद्यपि इनके सत्तासमय के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थकार एकमत नहीं हैं, दिगम्बरसंप्रदाय के विद्वान् इनको कुन्दकुन्दाचार्य के बाद में हुआ मानते हैं, तब श्वेताम्बरसंप्रदाय की पट्टावलियाँ इनको उपर्युक्त श्यामाचार्य के गुरु अथवा पुरोगामी और बलिस्सह के शिष्य 'स्वाति' आचार्य से अभिन्न मानती हैं। नन्दी-थेरावली के 'हारिअगुत्तं साईं च वंदमौ हारिअं च सामजं' इस गाथार्ध में बताये हुए स्वाति आचार्य ही यदि हिमवंतथेरावली के उमास्वाति हैं, तब तो उनका खारवेल की सभा में शामिल होना कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है, पर इस सम्बन्ध में अभी कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। श्वेताम्बरीय युगप्रधान-पट्टावलियों में एक और भी उमास्वाति वाचक वीर निर्वाण से १११५ के आस-पास के समय में हुए बतलाए हैं, आश्चर्य नहीं कि उमास्वाति नाम के आचार्य दो हुए हों और पिछले समय में इन दोनों का अभेद मान लेने से यह गड़बड़ उत्पन्न हो गई हो। कुछ भी हो, पर इससे हिमवन्त-थेरावली की अप्रामाणिकता कभी सिद्ध नहीं हो सकती।
___ "अपनी तमाम दलीलों की वृष्टि करने के बाद बाबू जी ने खारवेल के वंश के विषय में अपना अभिप्राय निश्चित किया है कि खारवेलसिरि ‘ऐल' वंश का पुरुष था। इस निर्णय में खारवेल के हाथीगुफावाले लेख का 'ऐरेन' इस शब्द और जैन हरिवंश में दी हुई 'ऐलेय' राजा की कथा को आधारभूत माना है, पर यह कल्पना भी निर्मूल है, इसका स्पष्ट खुलासा अन्तिम फुटनोट में विद्वान् सम्पादक जी ने ही कर दिया है। इस सम्बन्ध में यहाँ सिर्फ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राचीन समय की पूर्वदेशीय भाषाओं में 'र' का 'ल' होने का विधान तो अवश्य था पर 'ल' का 'र' करनेवाला कोई विधान नहीं था, इस वास्ते 'ऐल' का स्थानापन्न 'ऐर' नहीं हो सकता। कोई-कोई विद्वान् ‘ऐरेन' इस शब्द को 'वेरेन' इस प्रकार भी पढ़ते हैं जिसका संस्कृत रूप 'वज्रेण' होता है। क्या आश्चर्य है कि अन्य उपाधियों की तरह 'वज्र' यह भी खारवेल की कोई उपाधि हो? और यदि उड़िया दन्तकथा के अनुसार यहाँ 'ऐर' पाठ ही ठीक मान लिया जाय, तब भी उसको 'ऐलेय' का वंशज
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