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५४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० ७ / प्र० २
सकता है कि जब वह मूल थेरावली उपलब्ध हो गई हो । केवल उसके भाषान्तर के आधार पर यह चर्चा किस प्रकार निर्दोषरीत्या चल सकती है? पर लेखक महोदय जरा धैर्य रखें, इन सब पहलुओं पर विचार हो जायगा, क्योंकि अब मूल स्थविरावली भी हमारे हस्तगत हो गई है।
" अब हम कामताप्रसाद जी की उन दलीलों की क्रमशः समालोचना करेंगे, जो उन्होंने 'हिमवन्त - थेरावली' की खारवेल - विषयक बातों को अप्रामाणिक और बाधित सिद्ध करने के लिये अपनी तरफ से उपस्थित की हैं।
"१. आपका यह कथन ठीक है कि 'चेटक के वंश का जो परिचय थेरावली में दिया है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता', पर इससे यह कैसे मान लिया जाय कि कोई भी बात एक से अधिक ग्रन्थों में न मिलने से ही अप्रामाणिक या जाली है? दिगम्बर-संप्रदाय के मान्य ग्रन्थ मूलाचार अथवा भगवती आराधना का ही उदाहरण लीजिये, इन दोनों ग्रंथों में ऐसी अनेक बातें हैं, जो दूसरे किसी भी दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ में नहीं मिलतीं। क्या हम पूछ सकते हैं कि इन दोनों ग्रन्थों को अप्रामाणिक अथवा जाली ठहराने का बाबूसाहब ने कभी साहस किया है? यदि नहीं, तो फिर क्या कारण है कि किसी बात का ग्रन्थान्तर से समर्थन न होने की वजह से आप 'हिमवंत - थेरावली' को अप्रामाणिक ठहराने के लिये दौड़ पड़े हैं?
“२. लेखक का यह कथन कि " जो अंश प्रकट हुआ है उसका सामञ्जस्य केवल जैनशास्त्रों से ही ठीक नहीं बैठता, बल्कि जैनेतर साहित्य से भी वह बाधित है, जैसा कि आगे चलकर प्रकट होगा" कुछ भी सत्यता नहीं रखता। थेरावलीवाली हकीकत का जैनशास्त्रों से कुछ भी असामञ्जस्य सिद्ध नहीं होता और न जैनेतर साहित्य से ही वह बाधित है, जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा ।
“हिमवंत-थेरावली में केवल खारवेल और उसके वंश का ही उल्लेख नहीं है, बल्कि उस में श्रेणिक, कूणिक, उदायी, नन्द और मौर्यवंश के राज्य की कतिपय ज्ञातव्य बातों का भी स्फोट किया गया है, और सम्प्रति के समय में किस प्रकार मौर्य राज्य की दो शाखाएँ हुईं तथा सम्प्रति के बाद विक्रमादित्य पर्यन्त कौन कौन उज्जयिनी में राजा हुए, इन सब बातों का संक्षिप्त निर्देश इस थेरावली में किया गया है।
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“३. लेखक की तीसरी दलील यह है कि 'राजा चेटक के नाम की अपेक्षा किसी 'चेट' वंश का अस्तित्व इस से पहले के किसी साहित्यग्रन्थ या शिलालेख से प्रगट नहीं है। और चेटक का वंश 'लिच्छिवि' प्रसिद्ध था । "
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