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यापनीयसंघ का इतिहास / ५४१
अ० ७ / प्र० २
" इस विषय के अन्वेषक कतिपय विद्वानों के पत्रों से हमें ज्ञात हुआ कि उनको यह लेख बहुत ही पसन्द आया है । पर यह दुःख की बात है कि बा० कामताप्रसाद जी जैन को इस लेख से कुछ आघात पहुँचा मालूम होता है, जिस के परिणाम - स्वरूप आपने ‘अनेकान्त' की ५ वीं किरण में इसके खण्डन में इसी शीर्षक से एक आक्षेपक लेख प्रकाशित कराया है।
"लेख के प्रारम्भ में 'हिमवन्त थेरावली' को जाली ठहराने की धुन में आपने श्वेताम्बर जैन समाज पर जो आक्षेप किये हैं, उनका उत्तर देना इस लेख का विषय नहीं है, पर लेखक महाशय इतना समझ रक्खें कि जो दोषारोपण आप श्वेताम्बरसमाज पर करने जा रहे हैं, उससे कहीं अधिक दोषारोपण दिगम्बरसमाज पर भी हो सकता है, पर इस दोषदृष्टि में लाभ ही क्या है? इन दोषग्राहक - वृत्तियों से हमने हमारे समाज का जितना नुकसान किया है उतना शायद हमारे विरोधियों ने भी नहीं किया होगा । क्या ही अच्छा हो, यदि अब भी हम हमारे समानधर्मियों के ऊपर कीचड़ फैंकने के स्थान पर उनके साथ सहकार करना सीखें ।
" लेखक की शिकायत यह है कि 'हिमवन्त थेरावली' की प्रामाणिकता और प्राचीनता की चर्चा किये बगैर उसमें लिखी हुई किसी भी हकीकत का प्रकाशित करना ठीक नहीं जँचता । क्या यह दलील है? भला जो कुछ ऐतिहासिक नई सामग्री उपलब्ध हो, उसको सत्य प्रमाणित किये बगैर विचारार्थ उपस्थित न किया जाय, तो उस पर ठीक विचार ही कैसे हो सकता है? खारवेल के हाथीगुफा के लेख का ही उदाहरण लीजिए, उसको अनेक विद्वानों ने पढ़ा और अपनी-अपनी समझ के अनुसार एक दूसरे की विचारधारा को बदल कर अपनी सम्मतियाँ कायम कीं । यही क्यों, एक-एक विद्वान् ने प्रत्येक बार अपने विचारों को किस प्रकार बदला और नये परिष्कार किये, यह बात कहने की शायद ही जरूरत होगी ।
" दूसरी बात यह है कि हमारा उक्त लेख 'हिमवन्त - थेरावली' - विषयक मौलिक लेख नहीं था कि उसमें हम अपना कुछ भी अभिप्राय देते, 'वीर संवत् और जैन कालगणना' नामक हमारा निबन्ध जो 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में अभी छपा है, उस के पीछे इस थेरावली का सारांश परिशिष्ट के तौर पर दिया है, उसका यह एक अंश मात्र था, मूल लेख के साथ जो कुछ लिखना उचित था, वह हमने लिख भी दिया है, पर लेख के प्रत्येक अंश अथवा प्रकरण के साथ लेखक अपना अभिप्राय कैसे दे सकता है? यदि बा० कामताप्रसाद जी हमारे उस लेख के अन्त में दिये हुए फुटनोट को देख लेते, तो यह आक्षेप करने का उन्हें शायद मौका ही नहीं मिलता । 'थेरावली किस आचार्य ने किस जमाने में लिखी' इस बात पर ऊहापोह तभी हो
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