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अ० ७ / प्र० २
यापनीयसंघ का इतिहास / ५३९ लिये खास तौर से प्रयत्न करना चाहिए। उसके प्रकाश में आने पर ही उसके सब गुण-दोष खुल सकेंगे और यह भी मालूम हो सकेगा कि वह असली चीज है या नकली और जाली । श्रीयुत बा० काशीप्रसाद जी जायसवाल भी यथार्थ निर्णय के लिये उसकी मूल प्रति को जल्दी देखना चाहते हैं । इस विषय में एक पत्र उनका मुनि जी के नाम भी आया था, जो उन्हें भिजवा दिया गया है।
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'इसके सिवाय, मैं अपने पाठकों को इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इस लेख के अंत में लेखक महाशय ने हरिवंशपुराण की जिस कथा में प्रयुक्त हुए 'ऐलेय' नाम के आधार पर खारवेल के वंश की कल्पना कर डाली है, वह मुनिसुव्रत भगवान् के तीर्थ की और इस लिये आज से ग्यारह लाख वर्ष से भी अधिक पहले की पुरानी बतलाई जाती है । 'ऐलेय' राजा मुनिसुव्रत भगवान् का प्रपौत्र था और इसलिये हरिवंशी था । उसकी वंशपरम्परा में जितने भी राजाओं का उल्लेख मिलता है, उन सबको हरिवंशी लिखा है, ऐलवंशी या ऐलेयवंशी किसी को भी नहीं लिखा और न इस नाम के वंश का शास्त्रों में कोई उल्लेख ही मिलता है। ऐसी हालत में महज शब्दछल को लिये हुए लेखक महाशय की यह कल्पना एक बड़ी ही विचित्र मालूम होती है, जिसका कहीं से भी कोई समर्थन नहीं होता। जब तक आप प्राचीन साहित्य पर से स्पष्ट रूप में यह सिद्ध न कर दें कि 'ऐल' वंश भी कोई वंश था और राजा खारवेल उसी वंश में हुआ है, तब तक आपकी इस कल्पना का कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता । यह भी सोचने की बात है कि खारवेल यदि ऐलेय की वंशपरम्परा में होनेवाला हरिवंशी होता, तो वह अपने को ऐलवंशी कहने की अपेक्षा हरिवंशी कहने में ही अधिक गौरव मानता, जिस वंश में मुनिसुव्रत और नेमिनाथ जैसे तीर्थंकरों का होना प्रसिद्ध है। और यदि 'ऐलेय' राजा के बाद वंश का नाम बदल गया होता, तो नेमिनाथ भी ऐलवंशी कहलाते, परन्तु ऐसा नहीं है, स्वामी समन्तभद्र जैसे प्राचीन आचार्य भी हरिवंशकेतुरनवद्यविनयदमतीर्थनायकः (स्वयंभू-स्तोत्र) जैसे विशेषणों के द्वारा उन्हें हरिवंशी ही प्रकट कर रहे हैं । अतः लेखक की उक्त कल्पना निर्मूल जान पड़ती है।"
६.४. थेरावली - विषयक विशेष सम्पादकीय नोट १२०
लेखक : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादक : ' अनेकान्त'
"पिछले नोट को प्रेस में देने और उसके कम्पोज हो जाने के बाद 'हिमवन्त थेरावली' के गुजराती अनुवाद को अंचल - गच्छ की पट्टावली में प्रकाशित करनेवाले
१२०. ' अनेकान्त' / वर्ष १ / किरण ५ / चैत्र, वीर नि.सं. २४५६ / पृ. ३०३
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