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५३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० ७ / प्र० २
(जिनकल्पी) प्रकट करती है। रही बात सवस्त्र साधुओं की, सो थेरावली में सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति व श्यामाचार्य प्रभृति बताए हैं। इनमें से पहले दो इस सभा में शामिल नहीं हो सकते, यह हम देख चुके (!) । रहे शेष दो, सो ये भी उक्त सभा में नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उमास्वाति इस घटना के कई शताब्दी बाद हुए हैं और श्यामाचार्य उनसे भी पीछे के आचार्य मालूम होते हैं । अतः थेरावली का यह वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है।
" इन सब बातों को देखते हुए 'हिमवंत - थेरावली' को एक प्रामाणिक ग्रन्थ मान लेना सत्य का खून करना है और इस हालत में उसमें बताया हुआ खारवेल का वंशपरिचय भी ठीक नहीं माना जा सकता । अतः आइए पाठकगण, अब स्वाधीनरूप में ११४ खारवेलसिरि के वंश का परिचय प्राप्त करें ।
" सबसे पहले हाथीगुफावाले उनके शिलालेख को लीजिए। उसमें साफ तौर से उन्हें 'ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराजवसवधनेना' - - - कलि (ङ्) ग अधिपतिना सिरि खारवेलेन' लिखा है। इसमें प्रयुक्त हुए 'ऐरेन' शब्द का भाव 'ऐलवंशज' के रूप में और 'ऐर' (आर्य) रूप में भी लिया जाता है। ११५ इनका ऐलवंशज होना न केवल हिन्दूपुराणों से ही सिद्ध है, बल्कि दिगम्बर जैन हरिवंशपुराण के कथन से भी प्रमाणित है । ११६ हिन्दूपुराणों के अनुसार ई० पू० २१३ के बाद जिन राजवंशों का वर्णन है, उनमें से एक का वर्णन निम्न प्रकार है- ११७
यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त ज्ञान की प्राप्ति से पहले वे मुनि या आचार्यादि कुछ नहीं थे। बुद्धिलिंग को दशपूर्वज्ञान की प्राप्ति वीरनिर्वाण से २९५ वर्ष बाद हुई और २० वर्ष तक रही बतलाई गई है। उनके बाद देवाचार्य को यह सिद्धि हुई। और खारवेल की राज्यप्राप्ति थेरावलिकार ने वीरनिर्वाण से ३०० वर्ष बाद लिखी है। इससे खारवेल की सभा में इन दोनों आचार्यों की उपस्थिति बाधक नहीं हो सकती और नक्षत्राचार्य भी एकादशांग ज्ञान की प्राप्ति से पहले उस सभा में सम्मिलित हो सकते हैं। लेखक महाशय ने यों ही बिना अच्छी तरह से विचार किये, उनके समय को नितान्त भिन्न बतलाते हुए, उनके सम्मिलित होने को असंभव ठहराया है ।" सम्पादक ।
११४. “यहाँ 'स्वाधीन' शब्द का प्रयोग बड़ा ही बेढब जान पड़ता है। जिस परिचय के लिये लेखक महाशय खुद शिलालेख के आधुनिक रीडिंग, उसके अर्थों, पुराणों और दूसरे विद्वानों के वचनों का सहारा ले रहे हैं, उसे पाठकों को स्वाधीनरूप में प्राप्त कराना चाहते हैं, यह एक बड़ी ही विचित्र बात है ।" सम्पादक ।
११५. JBORS, IV, 1434-435.
११६. Ibid., XVIII, 277-279. ११७. Ibid, VI, 480-482.
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