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अ०७/प्र०२
यापनीयसंघ का इतिहास / ५३५ मि० जायसवाल पुष्यमित्र मानते हैं।१०७ थेरावली में स्पष्टतः पुष्यमित्र का नामोल्लेख कर दिया गया है। किन्तु अब विद्वान् वृहस्पतिमित्र को पुष्यमित्र मानने के लिए तैयार नहीं हैं।१०८ इसी प्रकार दृष्टिवाद अंग के पुनरुत्थान किये जाने की बात भी अब असंगत है, क्योंकि कोई-कोई विद्वान् उसे विपाकसूत्र ग्रन्थ बतलाते हैं, जो दिगम्बरमतानुसार विलुप्त है और श्वेताम्बरों में मिलता है।०९
___८. थेरावली द्वारा प्रकट किया गया है कि कुमारगिरि पर खारवेल ने आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध नामक स्थविरों के हाथ से जिनमन्दिर का पुनरुद्धार कराके प्रतिष्ठा कराई और उसमें जिन की मूर्ति स्थापित कराई। साथ ही, वीर निर्वाण से ३३० वर्षों के बाद ये सब कार्य करके खारवेल को स्वर्गवासी हुआ लिखा है। किन्तु श्वेताम्बरीय तपागच्छ की 'वृद्ध पट्टावली' से यह बात बाधित है। उसके अनुसार उक्त स्थविरद्वय का समय वीर निर्वाण से ३७२ वर्ष बाद का है।१० इस हालत में खारवेल का उनसे साक्षात् होना कठिन है।११ अतः हो सकता है कि यह बात मात्र इस गर्ज से लिखी गई हो कि उक्त तीर्थ को किसी समय श्वेताम्बरों का सिद्ध किया जा सके।
"९. इसी प्रकार खारवेल द्वारा एकत्र की गई सभा में देवाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, धर्मसेनाचार्य तथा नक्षत्राचार्य का सम्मिलित होना भी असंभव है, क्योंकि ये आचार्य कोई श्वेताम्बराचार्य तो थे नहीं, श्वे० पट्टावली में तो ये नाम देखने को भी नहीं मिलते। हाँ, दिगम्बर पट्टावली में ये नाम अवश्य पाये जाते हैं। किन्तु यहाँ ये सब आचार्य समकालीन प्रकट नहीं किये गये हैं। इनका समय एक दूसरे से नितान्त भिन्न है। धर्मसेनाचार्य वीर नि० सं० ३२९ और नक्षत्राचार्य ३४५ में हुए बतलाये गये हैं।१२ अतः उक्त थेरावली के अनुसार दिगम्बराचार्य धर्मसेनाचार्य ही केवल उस सभा में उपस्थित हुए कहे जा सकते हैं।१३ इन सब आचार्यों को थेरावली भी दिगम्बर
१०७. Ibid. p. 442. १०८. Indian Historical Quarterly , Vol. V, p. 587-613. १०९. Ibid. p. 592. ११०. जैन साहित्य संशोधक / भाग १/ परिशिष्ट प्र.९। १११. "भले ही कठिन जान पड़े, किन्तु असंभव नहीं है, क्योंकि उक्त ३७२ वर्ष का समय
सुस्थित- सूरि के स्वर्गारोहण का समय है। उससे ५०-६० वर्ष पहले उनका मौजूद होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके गुरु सुहस्ती की आयु तो पट्टावली में
ही १०० वर्ष की लिखी है।" सम्पादक। ११२. Indian Antiquary, XX, pp. 345-346. ११३. "यह सब निर्णय ठीक नहीं है, क्योंकि इन आचार्यों के दशपूर्वादि के पाठी होने
का समय भिन्न होने पर भी इनका समकालीन होना कोई बाधक मालूम नहीं होता।
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