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________________ ५३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० २ “४. चेटक का लिच्छिवि वंश पहले से ही बहुत प्रख्यात था और उस समय अन्य क्षत्रिय लोग उनसे विवाह सम्बन्ध करने में अपना अहो - भाग्य समझते थे । १०२ इस दशा में यदि शोभनराय भाग कर कलिंग गया होता, तो उसने अपने इस सर्वमान्य वंश का नाम कदापि न पलटा होता और उसे अपने उस पिता के नाम में परिवर्तित न किया होता, जो कोई बहादुरी न दिखा कर उलटा मगधराज के हाथ अपना राज्य गँवा बैठा था । "प दिगम्बर जैनशास्त्र 'उत्तरपुराण' में राजा चेटक के दस पुत्र बतलाये हैं और उनके नाम ये दिये हैं- धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्तवाक्, सिंहभद्र सुकुंभोज, अकंपन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास (पृ. ६३४) । इसमें शोभनराय नामक कोई पुत्र नहीं है। “६. दिगम्बरजैनग्रन्थ 'हरिवंशपुराण' से प्रकट है कि भगवान् महावीर के समय में कलिंग का राजा जितशत्रु था, १०३ सुलोचन नहीं था । अतः अन्य श्वेताम्बर और जैनेतर साहित्य से इस 'सुलोचन' का अस्तित्व जब तक प्रमाणित न हो जाय, तब तक उसको तत्कालीन कलिंगाधिपति स्वीकार करना कठिन है। " ७. उपर्युक्त प्रकार से इस थेरावली के प्रकट अंश के प्रारंभिक भाग की अनैतिहासिकता को देखते हुये, उसमें क्षेमराज, बुट्टराज, कुमारीगिरि आदि ऐतिहासिक पुरुषों तथा वार्ता का उल्लेख मिलना, उसके संदिग्ध रूप को असंदिग्ध नहीं बना देता। क्या यह संभव नहीं है कि खारवेल के अति प्राचीन शिलालेख को श्वेताम्बर साहित्य से पोषण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट करने के लिए ही किसी ने इस थेरावली की रचना कर डाली हो और वही रचना किसी शास्त्रभण्डार से उक्त मुनिजी को मिल गई हो ? १०४. इस बात को संभवनीय हम इस कारण और मानते हैं कि इसमें शिलालेख के पिछले रूप के अनुसार कई उल्लेख हैं, परंतु अब विद्वानों ने उन अंशों को दूसरे रूप में पढ़ा है । १०५ जैसे कि थेरावली में 'खारवेलाधिपति' नाम मात्र एक उपाधि रूप में है, परंतु अब वह खास नाम प्रकट हुआ है । १०६ शिलालेख में खारवेल ने एक वृहस्पतिमित्र राजा को परास्त किया लिखा है। इस वृहस्पतिमित्र को ही १०२. भगवान महावीर / पृ. ५७ । १०३. भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध / पृ. ४३ । १०४. “मुनि जी को अभी तक मूल ग्रन्थ की प्राप्ति नहीं हुई। उन्होंने उसके गुजराती अनुवाद पर से ही वह लेख लिखा है, जिसकी सूचना लेख के अन्तिम फुटनोट में पाई जाती है, और अपने १९ फरवरी के पत्र में वे मुझे भी लिख रहे हैं। वह अनुवाद 'अंचलगच्छनी म्होटी पट्टावली' में छपा है ।" सम्पादक । १०५. "उनका वह हाल का पढ़ना ही ठीक है, यह अभी कैसे मान लिया जाय?" सम्पादक । १०६. JBORS. IV, p. 434. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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