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________________ अ०७/प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५३३ "२. थेरावली का जो अंश प्रकट हुआ है, उससे मालूम होता है कि उसमें तत्कालीन भारत के अन्य राज्यों का भी पूर्ण वर्णन होगा। यदि यह बात है, तो बिना किसी अधिक विलम्ब के उक्त थेरावली को पूर्णतः प्रकट करना चाहिए। फिर भी जो अंश प्रकट हुआ है उसका सामञ्जस्य केवल जैनशास्त्रों से ही ठीक नहीं बैठता, बल्कि जैनेतर साहित्य से भी वह बाधित है, जैसा कि आगे चल कर प्रकट होगा। और यदि उसमें उक्त राजवंश के वर्णन के अतिरिक्त अन्य किसी राजवंश का वर्णन नहीं है, तो उसे सहसा स्वीकार कर लेना सुगम नहीं है। "३. राजा चेटक के नाम की अपेक्षा किसी 'चेट' वंश का अस्तित्व इससे पहले के किसी साहित्यग्रंथ या शिलालेख से प्रगट नहीं है। और चेटक का वंश 'लिच्छिवि' प्रसिद्ध था, जो उत्तर भारत में गुप्तकाल तक विद्यमान रहा, यह बात निर्विवाद सिद्ध है। गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त प्रथम का विवाह लिच्छिवि-वंशीय कुमारदेवी से हुआ था। कौटिल्य ने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने तक लिच्छिवि-वंशजों को उत्तर भारत में राज्याधिकारी लिखा है।९९ और इतिहास से यह पता चलता है कि अजातशत्रु के द्वारा परास्त किये जाने पर भी लिच्छिवि अपने राजसंघ के अस्तित्व को बनाये रख सके थे।१०° इसके साथ ही इतिहास और स्वयं श्वेताम्बर-ग्रन्थों से यह सिद्ध है कि चेटक कोई परम्परागत राजा नहीं था।०० विदेहदेश में तब साम्राज्यवाद के स्थान पर एक प्रकार का प्रजातंत्रवाद प्रचलित था। चेटक उस राष्ट्र के राष्ट्रपति नियुक्त थे।१०० अतः यह हार उनकी निजी न होकर राष्ट्र की थी और राष्ट्र का प्रत्येक प्रतिनिधि तब 'राजा' कहलाता था, यह बात भी स्पष्ट है। इस हालत में चेटक के पुत्र का भाग कर कलिंग पहुँचना और वहाँ पर नया राज्य और वंश स्थापित करना बाधित है। श्वेताम्बरीय शास्त्र ‘निर्यावली' और 'भगवती सूत्र' में अजातशत्रु और चेटक की उक्त लड़ाई का वर्णन है। उसमें साफ लिखा है कि 'चेटक ने इस आपत्ति को आया जान कर नौ मल्लिक, नौ लिच्छिवि और ४८ काशी-कौशल के गणराजों (गणरायालों) को तैयार किया। १०१ इससे स्पष्ट है कि इन गणराजों का नेतृत्व राजा चेटक ग्रहण किये हुए थे। ९८. भारत के प्राचीन राजवंश / भा.२ / पृ. २४२। ९९. "लिच्छिविक-वृजिक-मल्लक-मद्रक-कुकुर-कुरु-पाञ्चालादयो-राजशब्दोपजीविनः संघाः" इति कौटिल्यः। १००. सम क्षत्री क्लैन्स इन ऐन्शियेन्ट इण्डिया / पृ. १३५-१३६।। १०१. भगवती ७-९ / इण्डियन ऐन्टीक्वेरी / भा.२१/ पृ.२१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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