________________
५३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०२ उसमें मान्य लेखक ने हाथीगुफा के लेख में आये हुए 'चेतवसवधनस' (अब इस वाक्य को मि० जायसवाल ने 'चेतिराजवसवधनेन' पढ़ा है और उन्हें 'चेति' अथवा 'चेदि' वंशज बताया है) वाक्य से जो विद्वान उन्हें 'चैत्र' अथवा 'चेदि'-वंशज बतलाते हैं, उनसे अहसमतता प्रकट की है, क्योंकि मुनि जी को कहीं से एक 'हिमवंतथेरावली' नामक श्वेताम्बर-पट्टावली मिल गई है और उस में राजा खारवेल को लिच्छिविसंघ के राष्ट्रपति राजा चेटक का वंशज प्रगट किया है। इस थेरावली की प्रामाणिकता और प्राचीनता के विषय में न तो मुनि जी ने ही कुछ लिखा है और न संपादक महोदय ने ही कछ छानबीन की है।५ इस साहित्यिक डाकेजनी के जमाने में इस प्रकार एक शिलालेख की सब बातों से मेल खानेवाले साहित्य का यकायक निकल आना, कुछ अ
आश्चर्य की बात नहीं है। सो भी उस दशा में जब कि श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में पवित्र तीर्थों के नाम पर झगड़े चल रहे हैं और श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की
ओर से पहले भी जाली दस्तावेजें पेश की जा चुकी हैं, जैसे कि शिखरजी-केस के 'जजमेन्ट' से प्रकट है।९६ अत एव उक्त थेरावली के परिचय को बिलकुल गुप्त रखते हुए उसकी कुछ बातों को बिना कोई विशेष शोध-परिशोध किये ही एकदम प्रकट कर देना कुछ ठीक नहीं जंचता। वह थेरावली किस आचार्य ने किस जमाने में लिखी, उसकी प्रतियाँ कहाँ-कहाँ किस रूप में मिलती हैं और ग्रन्थ के जाली न होने में कोई सन्देह तो नहीं, ये सब बातें जब तक प्रकट न हों, तब तक इस थेरावली पर विश्वास किया जाना कठिन है। निम्न बातों को देखते हुये तो यह थेरावली जाली प्रतीत होती है अथवा उस पर जाली होने का बहुत बड़ा सन्देह पैदा होता है
"१. थेरावली में राजा चेटक के वंश का जो परिचय दिया है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। कम से कम दिगम्बरजैन-शास्त्रों में उसका उल्लेख नहीं है और जहाँ तक मुझे श्वेताम्बरशास्त्रों का परिचय है, मैं कहने को बाध्य हूँ कि उनमें भी ऐसा वर्णन शायद ही मिले।
२५. "छानबीन चल रही है। नतीजा निकलने पर प्रकट किया जायगा। अभी तक मूल ग्रन्थ
या उसका अनुवाद भी प्राप्त नहीं हो सका।" सम्पादक। ९६. “They (Fermans) will appear to be matlabi on the face of them and to
have been got up for the purpose of disputes... ( P.H.Judg.. p.32 )" लेखक। ९७. "एक विद्वान् को जो बातें जिस रूप में कहीं से प्राप्त हों, उन्हें उस रूप में विशेष
अनसंधान को उत्तेजन देने के लिये प्रकट कर देना तो कुछ आपत्ति के योग्य मालूम नहीं होता। विशेष जाँच-पड़ताल अधिक समय तथा साधना-सामग्री की अपेक्षा रखती है और वह प्रायः बाद को अनेक विद्वानों के सहयोग से हो पाती है।" सम्पादक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org