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________________ ५३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०२ "पुत्र, पौत्र और रानियों के परिवार से सुशोभित भिक्खुराय ने सब निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नमस्कार करके कहा, "हे महानुभावो! अब आप वर्धमान-तीर्थंकरप्ररूपित जैनधर्म की उन्नति और विस्तार करने के लिये सर्वशक्ति से उद्यमवन्त हो जायँ।" "भिक्खुराय के उपर्युक्त प्रस्ताव पर सर्व निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों ने अपनी सम्मति प्रकट की और भिक्षुराज से पूजित, सत्कृत और सम्मानित निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ मगध, मधुरा, वंग, आदि देशों में तीर्थंकरप्रणीत धर्म की उन्नति के लिये निकल पड़े। "उसके बाद भिक्खुराय ने कुमरगिरि और कुमारीगिरि नामक पर्वतों पर जिनप्रतिमाओं से शोभित अनेक गुफायें खुदवाईं, वहाँ जिनकल्प की तुलना करनेवाले निर्ग्रन्थ वर्षाकाल में कुमारीपर्वत की गुफाओं में रहते और जो स्थविरकल्पी निर्ग्रन्थ होते, वे कुमरपर्वत की गुफाओं में वर्षाकाल में रहते, इस प्रकार भिक्खुराय ने निर्ग्रन्थों के रहने के वास्ते विभिन्न व्यवस्था कर दी थी। "उपर्युक्त सर्व व्यवस्था से कृतार्थ हुए भिक्खुराय ने बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामाचार्यादिक स्थविरों को नमस्कार करके जिनागमों में मुकुटतुल्य दृष्टिवाद-अंग का संग्रह करने के लिये प्रार्थना की। "भिक्खुराय की प्रेरणा से पूर्वोक्त स्थविर आचार्यों ने अवशिष्ट दृष्टिवाद को श्रमण समुदाय से थोड़ा-थोड़ा एकत्र कर भोजपत्र, ताड़पत्र और बल्कल पर अक्षरों से लिपिबद्ध करके भिक्खुराय के मनोरथ पूर्ण किये और इस प्रकार करके वे आर्य सुधर्म-रचित द्वादशांगी के संरक्षक हुए। "उसी प्रसंग पर श्यामाचार्य ने निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों के सुखबोधार्थ 'पन्नवणा सूत्र' की रचना की।८८ "स्थविर श्री उमास्वाति जी ने उसी उद्देश से नियुक्ति-सहित 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना की।८९ "स्थविर आर्य बलिस्सह ने विद्याप्रवादपूर्व में से 'अंगविद्या' आदि शास्त्रों की रचना की।९० ८८. "श्यामाचार्यकृत 'पन्नवणा' सूत्र अब तक विद्यमान है।" लेखक। ८९. "उमास्वातिकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' और इसका स्वोपज्ञ 'भाष्य' अभी तक विद्यमान हैं। यहाँ पर उल्लिखित 'नियुक्ति' शब्द संभवतः इस भाष्य के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है।" लेखक। ९०. "अंगविद्या प्रकीर्णक भी हाल तक मौजूद है। कोई ९००० (नौ हजार) श्लोक प्रमाण का यह प्राकृत गद्य-पद्य में लिखा हुआ 'सामुद्रिक विद्या' का ग्रन्थ है।" लेखक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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