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________________ यापनीयसंघ का इतिहास / ५२९ अ० ७ / प्र० २ 'महामेघवाहन' था। उसकी राजधानी समुद्र के किनारे पर होने से उसका तीसरा नाम 'खारवेलाधिपति' था । ' ८४ " भिक्षुराज अतिशय पराक्रमी और अपनी हाथी आदि की सेना से पृथवीमण्डल का विजेता था, उसने मगध देश के राजा पुष्यमित्र ८५ को पराजित करके अपनी आज्ञा मनाई, पहिले नन्दराजा ऋषभदेव की जिस प्रतिमा को उठा कर ले गया था, उसे वह पाटलिपुत्र नगर से वापिस अपनी राजधानी में ले गया ८६ और कुमरगिरि तीर्थ श्रेणिक के बनवाये हुए जिन - मन्दिर का पुनरुद्धार करके आर्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थित- सुप्रतिबुद्ध नाम के स्थविरों के हाथ से उसे फिर प्रतिष्ठित कराकर उस में स्थापित की। "पहिले जो बारह वर्ष तक दुष्काल पड़ा था, उसमें आर्यमहागिरि और आर्यसुहस्ती के अनेक शिष्य शुद्ध आहार न मिलने के कारण कुमरगिरि नामक तीर्थ में अनशन करके शरीर छोड़ चुके थे, उसी दुष्काल के प्रभाव से तीर्थंकरों के गणधरों द्वारा प्ररूपित बहुतेरे सिद्धान्त भी नष्टप्राय हो गये थे, यह जानकर भिक्खुराय ने जैनसिद्धान्तों का संग्रह और जैनधर्म का विस्तार करने के वास्ते सम्प्रति राजा की तरह श्रमण निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थियों की एक सभा वहीं कुमारी पर्वत नामक तीर्थ पर इकट्ठी की, जिसमें आर्य महागिरि जी की परम्परा के बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य आदिक २०० (दो सौ ) जिनकल्प की तुलना करनेवाले जिनकल्पी साधु तथा आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, ८७ श्यामाचार्य प्रभृति ३०० (तीन सौ ) स्थविरकल्पी निर्ग्रन्थ उस सभा में आये । आर्या पोइणी आदिक ३०० (तीन सौ ) निर्ग्रन्थी साध्वियाँ भी वहाँ इकट्ठी हुई थीं । भिक्खुराय, सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि ७०० ( सात सौ ) श्रमणोपासक और भिक्खुराय की स्त्री पूर्णमित्रा आदि सात सौ श्राविकायें, ये सब उस सभा में उपस्थित थे । ८४. “हाथीगुफावाले लेख में भी 'भिखुराजा', 'महामेघवाहन' और 'खारवेलसिरि' इन तीनों नामों का प्रयोग खारवेल के लिये हुआ है।" लेखक । ८५. " खारवेल के शिलालेख में भी मगध के राजा वृहस्पतिमित्र को जीतने का उल्लेख है ।" लेखक । 44 ८६. 'नन्दराजा द्वारा ले जाई गई जिनमूर्ति को वापिस कलिंग में ले जाने का हाथीगुफा लेख में नीचे लिखे अनुसार स्पष्ट उल्लेख है - " नन्दराजनीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं गहरतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति ( । ) " ( हाथीगुफालेख पंक्ति १२वीं, बिहार-ओरिसा जर्नल, वाल्युम ४, भाग ४) । " लेखक । ८७. “तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता 'उमास्वाति' भी भिक्खुराय खारवेल की इस सभा में उपस्थित थे, यह बात बहुत ही संदिग्ध तथा आपत्ति के योग्य जान पड़ती है ।" सम्पादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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