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________________ ५२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०२ "इसके बाद शोभनराय की ८ वीं पीढ़ी में क्षेमराज७९ नामक कलिंग का राजा हुआ, वीरनिर्वाण के बाद २२७ (दो सौ सत्ताईस) वर्ष पूरे हुए , तब कलिंग के राज्यासन पर क्षेमराज का अभिषेक हुआ और निर्वाण से २३९ (दो सौ उनतालीस) वर्ष बीते, तब मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की ८० और वहाँ के राजा क्षेमराज को अपनी आज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना गुप्त संवत्सर चलाया। १ . "महावीर निर्वाण से २७५ (दो सौ पचहत्तर) वर्ष के बाद क्षेमराज का पुत्र बुट्टराज ८२ कलिंगदेश का राजा हुआ, बुट्टराज जैनधर्म का परम उपासक था, उसने कुमरगिरि और कुमारीगिरि नामक ८३ दो पर्वतों पर श्रमण और निर्ग्रन्थियों के चातुर्मास्य करने योग्य ११ ग्यारह गुफायें खुदवाई थीं। "भगवान् महावीर के निर्वाण को ३०० (तीन सौ) वर्ष पूरे हुये तब बुट्टराय का पुत्र भिक्खुराय कलिंग का राजा हुआ। भिक्खुराय के नीचे लिखे तीन नाम कहे जाते हैं-निर्ग्रन्थ भिक्षुओं की भक्ति करनेवाला होने से उसका एक नाम भिक्खुराय था। पूर्वपरम्परागत महामेघ नाम का हाथी उसका वाहन होने से उसका दूसरा नाम ७९. "हाथीगुफावाले खारवेल के शिलालेख में भी पंक्ति १६वीं में 'खेमराजा स' इस प्रकार खारवेल के पूर्वज के तौर से क्षेमराज का नामोल्लेख किया है।" लेखक। ८०. "कलिंग पर चढ़ाई करने का जिकर अशोक के शिलालेख में भी है, पर वहाँ पर अशोक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष के बाद कलिंगविजय करना लिखा है। राज्य प्राप्ति के बाद ३ या ४ वर्ष पीछे अशोक का राज्याभिषेक हुआ मान लेने पर कलिंग का युद्ध अशोक के राज्य के १२-१३ वें वर्ष में आयेगा। थेरावली में अशोक की राज्यप्राप्ति निर्वाण से २०९ वर्ष के बाद लिखी है, अर्थात् २१० में इसे राज्याधिकार मिला और २३९ में कलिंग विजय किया। इस हिसाब से कलिंग-विजयवाली घटना अशोक के राज्य के ३० वें वर्ष के अन्त में आती है, जो कि शिलालेख से मेल नहीं खाती।" लेखक। "अशोक के गुप्तसंवत्सर चलाने की बात ठीक नहीं जंचती। मालूम होता है, थेरावलीलेखक ने अपने समय में प्रचलित गुप्त राजाओं के चलाये गुप्तसंवत् को अशोक का चलाया हुआ मान लेने का धोखा खाया है। इसी उल्लेख से इसकी अतिप्राचीनता के सम्बन्ध में भी शंका पैदा होती है।" लेखक। ८२. "बुट्टराज का भी खारवेल के हाथीगुफावाले लेख में 'वढराजा स' इस प्रकार का उल्लेख है।" ८३. "उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर के निकट के 'खण्डगिरि' और 'उदयगिरि' पर्वत ही विक्रम की १० वीं तथा ११ वीं शताब्दी तक क्रमशः 'कुमरगिरि' और 'कुमारीगिरि' कहलाते थे।" लेखक। ८१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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