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________________ ५२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०२ जा रहा है। श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने आज से ७५ वर्ष पूर्व (वीर नि० सं० २४५६ = ई० सन् १९३० में) 'अनेकान्त' में 'राजा खारवेल और उसका वंश' शीर्षक से लेख प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने किसी 'हिमवन्त थेरावली' नामक पुस्तक के आधार पर खारवेल को चेदिवंश की जगह चेटवंश में उत्पन्न बतलाकर श्वेताम्बर सिद्ध करने की चेष्टा की थी। इस पर बाबू कामताप्रसाद जी जैन ने 'अनेकान्त' में लेख लिखकर कड़ी आपत्ति जतलाई थी और 'हिमवन्त थेरावली' को जाली घोषित किया था। सम्पादक पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने बाबू जी के लेख पर कई प्रतिकूल टिप्पणियाँ की थीं, तथापि 'हिमवन्त थेरावली' की प्रामणिकता के विषय में उन्हें भी सन्देह हो गया था, फलस्वरूप उन्होंने उसकी मूल प्रति प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। किन्तु बहुत दिनों तक वह उन्हें प्राप्त न हो सकी। अन्ततः वह श्वेताम्बर मुनि श्री जिनविजय जी को प्राप्त हो गई और उन्होंने पाया कि उसमें खारवेल के वंश आदि के विषय में दिया गया विवरण कल्पित (जाली) है। इसकी सूचना उन्होंने पत्र लिखकर पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार को दी। माननीय काशीप्रसाद जी जायसवाल ने भी इस प्रकार का समाचार मुख्तार जी के पास प्रकाशनार्थ भेजा। मुख्तार जी ने इन सभी को 'अनेकान्त' में प्रकाशित किया है। ये सभी लेख एवं पत्र आगे उद्धृत किये जा रहे हैं, ताकि इस तथ्य से वर्तमान पीढ़ी भी अवगत हो जाय, जिससे उक्त 'हिमवन्त थेरावली' के आधार पर कोई पुनः वैसा छल करके उसे गुमराह न कर सके। ६.१. प्रथम लेख (ज्ञातव्य-इस लेख में दी गईं पादटिप्पणियाँ इसी लेख के लेखक की तथा कतिपय 'अनेकान्त' के सम्पादक पं० जुगलकिशोर मुख्तार की हैं। पादटिप्पणी के अन्त में 'लेखक' और 'सम्पादक' शब्द से इसका संकेत कर दिया गया है।) राजा खारवेल और उसका वंश लेखक : श्री० मुनि कल्याणविजय जी "पाटलिपुत्रीय मौर्यराज्य-शाखा को पुष्यमित्र तक पहुँचाने के बाद 'हिमवंतथेरावली'-कार ने कलिंगदेश के राजवंश का वर्णन दिया है। हाथीगुफा के लेख से कलिंगचक्रवर्ती खारवेल का तो थोड़ा-बहुत परिचय विद्वानों को अवश्य मिला है, पर उसके वंश और उसकी संतति के विषय में अभी तक कुछ भी प्रामाणिक निर्णय ७७. 'अनेकान्त' वर्ष १/ किरण ४/ फाल्गुन, वीर नि० सं० २४५६ / पृ. २२६-२२९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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