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________________ अ०७/प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५२५ संस्कृत छाया-'कल्पवृक्षान् हयगजरथान् सयंतृन् सर्वगृहावास परिवसनानि साग्निष्ठि-कानि। सर्वग्रहणं च कारयितुं ब्राह्मणानां जातिं परिहारं ददाति अर्हत--- व --- न--- गिया (?)' ७४ इसलिए जिस प्रकार ब्राह्मणों को दान देने के उल्लेख से राजा खारवेल ब्राह्मण सिद्ध नहीं होता, वैसे ही यदि शिलालेख में श्वेताम्बर-साधुओं को वस्त्रादिदान का उल्लेख होता, तो वह श्वेताम्बर-मतानुयायी सिद्ध नहीं हो सकता था। श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल ने शिलालेख के पूर्वोक्त १४ वें वाक्य से जो यह अर्थ ग्रहण किया है कि राजा खारवेल ने श्वेताम्बर साधुओं को रेशमी और श्वेतवस्त्र दान किये थे, उसके आधार पर मुनि पुण्यविजय जी ने 'कायनिसीदयाय यापजवकेहि' शब्दों से मिलते-जुलते शब्दों की श्वेताम्बरग्रन्थों में उपस्थिति तथा प्रकारान्तर से दिगम्बरग्रन्थों में अनुपस्थिति बतलाकर मौनरूप से यह सिद्ध करना चाहा है कि राजा खारवेल श्वेताम्बर था। इस पर बाबू छोटेलाल जी जैन (कलकत्ता) ने अपने एक लेख में आपत्ति की है। उसका समाधान करते हुए 'अनेकान्त' के सम्पादक पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं "खारवेल महाराज के दिगम्बर होने पर भी उनके द्वारा अपने श्वेताम्बर भाइयों का सत्कारित होना कोई अनोखी बात नहीं कहा जा सकता, खासकर उस जमाने में, जब कि परस्पर के मतभेद ने आजकल जैसा कोई उग्ररूप धारण नहीं किया था और ऐसी हालत में जब कि खारवेल खुद एक उदारहृदय सम्राट् थे, सर्वमतों के प्रति आदरभाव रखते थे, उन्होंने ब्राह्मणों तक का सत्कार किया है और वे अपनी पैंतीस लाख प्रजा को अनुरंजित (प्रसन्न) रखने का शिलालेख में ही उल्लेख करते हैं। अतः इस सत्कारमात्र से, यदि वह पाठ के आपन्न न होने पर ठीक भी हो, तो खारवेल के दिगम्बर होने में कोई बाधा नहीं आती, जिसकी किसी को चिन्ता करनी पड़े।"७६ श्वेताम्बर सिद्ध करने का अन्य कपट-प्रयास राजा खारवेल को श्वेताम्बर सिद्ध करने का एक अन्य प्रयास भी किया गया है, जिसका विवरण जानना अत्यन्त रोचक है। उसका घटनाक्रम यथावत् प्रस्तुत किया ७४. चन्द्रकान्तबाली शास्त्री : खारवेलप्रशस्ति : पुनर्मूल्यांकन / पृ. ११ । ७५. 'महाराज खारवेल'। 'अनेकान्त' वर्ष १/ किरण ५/ पृष्ठ २८४-२८८ । ७६. सम्पादकीय पादटिप्पणी ('महाराज खारवेल' : बाबू छोटेलाल जी जैन, कलकत्ता/ 'अनेकान्त' वर्ष १/ किरण ५/ पृष्ठ २८४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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