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________________ ५२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०२ कर 'पापज्ञापकों (पाप बताने वालों) के लिए राजभृतियाँ कायम कर दी (शासित कर दी)' यह अर्थ किया है।७१ डॉ० शशिकान्त जी ने पूर्ववर्ती अन्य विद्वानों का अनुसरण करते हुए कुछ भिन्न पाठ ग्रहण किये हैं, जैसे 'अरहते', 'यापुजवकेहि', 'राजभतिना', 'चिनवताना', 'वससिताना', 'पूजानुरत-उवासग', 'जीवदेहसिरिता', 'परिखाता' आदि तथा इनका अर्थ प्रतिपादन भी पर्याप्त भिन्न है।७२ किन्तु यहाँ मीमांसा का मुख्य विषय 'यापजवकेहि' या 'यापुजवकेहि' पद है। इसे शशिकान्त जी ने 'यापनीयों' का वाचक नहीं माना है। उन्होंने अपने निष्कर्ष का प्रतिपादन निम्नलिखित शब्दों में किया है “The yāpaniya Sect formally came into existence towards the middle of the second century A.D. It was a reversion to the austere and also an effort to bridge up the gap between the Svetāmbar and Digambara modes and doctrines. It has, all the same, no relation to yāpujavakehi in L 14 of our inscription." खारवेल का श्वेताम्बरत्व भी सिद्ध नहीं यतः शिलालेख के 'चिनवतानि' आदि शब्दों से 'रेशमी और श्वेतवस्त्र' अर्थ निष्पन्न नहीं होता, अतः मुनि श्री पुण्यविजय जी आदि ने जो यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि खारवेल ने श्वेताम्बर साधुओं को वस्त्रदान किया था, अतः वह श्वेताम्बर था, वह भी निरस्त हो जाता है। और यदि शिलालेख में वास्तव में वस्त्रदान का उल्लेख होता, तो भी वह श्वेताम्बर सिद्ध नहीं हो सकता था, क्योंकि एक राजा की हैसियत से वह सभी धर्मों का सम्मान करता था, उसने शिलालेख में स्वयं लिखवाया है-"सबपाखंडपूजको सबदेवायतन-संस्कारकारको --- राजा खारवेलसिरि" (खारवेल राजा सभी धार्मिक सम्प्रदायों का सम्मान और सभी देवायतनों का जीर्णोद्धार करता है)। इसीलिए उसने ब्राह्मणों को भी स्वर्णनिर्मित कल्पवृक्ष, हाथी, घोड़े, रथ, भवन आदि दान में दिये थे, जैसा कि शिलालेख की निम्नलिखित पंक्ति से सूचित होता है "कपरुखे हय-गज-रथ-सहयत्ते सवयरावास परिवसने स अगिणठिया। सब गहने च कारयितुं बम्हणाने जातिं परिहारं ददाति। अरहतो --- ब --- न --- गिव।" ७२. Shashikant : The Hathigumpha Inscription of Khāravela and The Bhabru Edict of Asoka, Appendix I, p.112 and Appendix II , p. 117. 73. वही / पृ.६८ / पादटिप्पणी २। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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