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अ०७/प्र०२
यापनीयसंघ का इतिहास / ५२३ निर्वृत्ता नैषेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद्वा 'नैषीधिका' इत्युच्यते"६९ इस व्युत्पत्ति के आधार पर निषेधपरक अर्थ सुझाया है, वह युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
किन्तु कायनिसीदीयाय तृतीयान्त नहीं है, जैसा कि मुनि पुण्यविजय जी ने कायनैषेधिक्या, संस्कृत छाया करके प्रकट किया है। यह चतुर्थी या षष्ठी का एकवचनात्मक रूप है और उसका अभिप्राय है काय के निषेध (काय से ममत्व के त्याग) के लिए।
इन अर्थों के साथ सम्पूर्ण वाक्य का अर्थ इस प्रकार घटित होता है
तेरसमे च वसे = तेरहवें वर्ष में, सुपवत-विजयचककुमारीपवते अरहिते = पूज्य कुमारीपर्वत पर, जहाँ (जैनधर्म का) विजयचक्र सुप्रवृत्त है,७० पखीणसंसितेहि (प्रक्षीणसंसृतिभिः) = संसार के विनाश में संलग्न, यापञवकेहि (यापज्ञापकैः) = मोक्षमार्ग के उपदेशक मुनियों के द्वारा (राजा को), कायनिसीदीयाय = काय से ममत्व त्यागने के लिए, राजमितानि = राजोचित (ढंग से) चिनवतानि (चिव्रतानि) = आत्मसाधक ज्ञान एवं व्रतों का, सासितानि (शासितानि) = उपदेश दिया। (उस उपदेश से) पूजायरतउवास-खारवेलसिरिना (पूजायां रतोपवासेन क्षारवेलेन श्रीमता)१ = पूजा एवं उपवास करनेवाले श्री खारवेल ने, जीवदेहसिरिका (जीवदेहश्रीकता) = जीव और देह के भेद को, परिखिता (परीक्षिता) = परख लिया७१ और देह से ममत्व छोड़ दिया।
. लेख की इस १४वीं पंक्ति में डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने राजभितिनि पद पढ़ा है, श्री चन्द्रकान्तबाली शास्त्री ने राजभितानि तथा डॉ० शशिकान्त जी ने 'राजभतिना।' मेरी दृष्टि से राजमितानि पद होना चाहिये, क्योंकि ऊपर दिखलाये अनुसार सम्पूर्ण वाक्य का जो अर्थ घटित होता है, उसमें 'राजमितानि' पद ही संगत बैठता है। इसी प्रकार ' श्री चन्द्रकान्तबाली शास्त्री ने वसासितानि का संस्कृतपाठ '( एव? ) शासिता' किया है। (पृ. १६)। मुझे भी यह संगत प्रतीत हुआ है। अतः मैंने 'एव' के अवशिष्ट रूप 'व' का उल्लेख न करते हुए सासितानि पद ग्रहण किया है। तथा शास्त्री जी ने उवास शब्द का हिन्दी अर्थ उपवास किया है। (पृ.१६), मैंने भी उसे उपयुक्त माना है।
श्री चन्द्रकान्तबाली शास्त्री ने भी चिनवतानि वसासितानि का 'रेशमी और श्वेत वस्त्र' अर्थ नहीं किया, अपितु राजभृतिश्चीर्णवता (एव?) शासिता ऐसी संस्कृत छाया
६९. आवश्यकसूत्र / हारिभद्रीय टीका / पत्र ५४६-४७ ('महाराजा खारवेलसिरि के शिलालेख
की १४ वीं पंक्ति'। 'अनेकान्त' वर्ष १/ किरण ३/ पृष्ठ १४३)। ७०. 'सुप्रवृत्तविजयचक्रे'-चन्द्रकान्तबाली शास्त्री : खारवेलप्रशस्ति : पुनर्मूल्यांकन / पृ. १६ । ७१. चन्द्रकान्तबाली शास्त्री : खारवेलप्रशस्ति : पुनर्मूल्यांकन / पृ. १६ ।
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