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५२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
नमो अरहंतानं (षष्ठी)
नमो सवसिद्धानं (षष्ठी)
नमोऽर्हद्भ्यः (चतुर्थी)
नमः सर्वसिद्धेभ्यः (चतुर्थी)
'हि' या 'हिं' प्रत्यय सर्वत्र तृतीया विभक्ति ६६ (करणकारक) के बहुवचन में
प्रयुक्त हुआ है। जैसे
पनतीसाहि सतसहसेहिं
पाहि
सथापिताहि
हिताहि
सिलाहि
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अ० ७ / प्र० २
इन उदाहरणों से सिद्ध है कि पखीणसंसितेहि और यापञवकेहि भी तृतीयान्तरूप हैं, अतः करणकारक हैं । उनकी संस्कृत - छाया इस प्रकार होगी - प्रक्षीणसंसृतिभिः एवं यापज्ञापकैः। इसलिए उनका अर्थ होगा - ' संसारचक्र के विनाश में संलग्न यापज्ञापकों के द्वारा ।'
पञ्चत्रिंशद्भिः शतसहस्रैः (तृतीया बहुवचन)
कारणैः (तृतीया) समुत्थापिताभिः (तृतीया)
हृताभिः (तृतीया)
शिलाभिः (तृतीया)
४
तृतीयान्त के लिए 'वस्त्रादिदान' अर्थ संगत नहीं
अतः मुनि जी एवं जायसवाल जी ने जो 'यापज्ञापकों के लिए' यह सम्प्रदानकारक - रूप अर्थ किया है, वह व्याकरण की दृष्टि से सर्वथा असंगत है। इसलिए राजा ने यापज्ञापकों के लिए रेशमी और श्वेतवस्त्र भेंट किये, यह अर्थ भी असंगत है। यहाँ तो यापज्ञापकों के द्वारा रेशमी और श्वेतवस्त्र भेंट किये गये, यह अर्थ निकल सकता है । किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से यह अर्थ संगत नहीं है, क्योंकि मोक्षमार्ग के उपदेशक सर्वसंगत्यागी मुनियों के द्वारा किसी को वस्त्रादि भेंट किया जाना संभव नहीं है । अतः मुनि जी और जायसवाल जी ने ' राजभितानि चिनवतानि वसासितानि' का जो राजभृति, चीनांशुक (रेशमी) तथा श्वेतवस्त्र अर्थ किया है वह भी अनुपपन्न है ।
६६. 'भिसो हि हिँ हिं' ( वही ३ / ७)।
६७. सर्वार्थसिद्धि / ९ / ९ ।
यद्यपि 'निषद्या'६७ (परीषहविशेष) और 'निषीधिका' (अर्हदादि एवं मुनिराजों का समाधि - स्थान ) ६८ शब्द दिगम्बर- साहित्य में भी उपलब्ध हैं, तथापि मुनि पुण्यविजय जी ने 'कायनिसीदीयाय' पद में 'निसीदी' शब्द का जो "निषेधनं निषेधः, निषेधेन
६८.‘“णिसिहीओ निषिधीर्योगिवृत्तिर्यस्यां भूमौ स निषिधी इत्युच्यते ।" विजयोदयाटीका / भगवतीआराधना / गाथा 'जम्मणअभि' १४५ ।
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