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________________ अ० ७ / प्र० २ यापनीयसंघ का इतिहास / ५२१ वे लिखते हैं- " मुनि श्री पुण्यविजय जी के लेख ( ' अनेकान्त' पृ० १४२ ) से 'यापज्ञापक' शब्द का अर्थ साफ हो गया, जिसकी खोज मुझे बहुत दिनों से थी। कई वर्षों के अध्ययन से 'यापञावक' पाठ निश्चित किया गया था, पर अर्थ का पता नहीं लगता था। मैं मुनिजी का बहुत अनुगृहीत हूँ । ( चैत्र शु० ११, वी० नि० २४५६) ।”६४ इससे यह निश्चित हो जाता है कि 'यापज्ञापक' शब्द का अर्थ 'यापनीय आचार्य' नहीं है । अतः ईसापूर्व द्वितीय शती में यापनीय-सम्प्रदाय के अस्तित्व की संभावना निरस्त हो जाती है। 'धर्मनिर्वाहक' भी नहीं, अपितु धर्मोपदेशक किन्तु मुनि श्री पुण्यविजय जी ने तथा उनके अनुसार श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल ने यापज्ञापक पद से जो यापनीयक अर्थात् धर्म का निर्वाह करनेवाला' अर्थ लिया है, वह शब्दों से प्रतिपादित नहीं होता। 'यापज्ञापक' का शाब्दिक अर्थ है 'याप का ज्ञापक' अर्थात् याप का ज्ञान करानेवाला । मोनियर विलियम्स की संस्कृत-इंग्लिशडिक्शनरी में याप शब्द का एक अर्थ cure अर्थात् किसी रोग की चिकित्सा भी दिया गया है। अतः धर्म के प्रकरण में 'याप' शब्द का अर्थ 'संसार दुःखरूप रोग की चिकित्सा अर्थात् संसार से मोक्ष का उपाय' युक्तियुक्त सिद्ध होता है । फलस्वरूप 'यापज्ञापक' का अर्थ है - मोक्षमार्ग या धर्म का ज्ञापक (उपदेशक ) साधु । 'ज्ञापक' शब्द से 'निर्वाह करनेवाला' अर्थ प्रतिपादित नहीं होता, यदि शिलालेख में 'यापनीयक' शब्द ही होता, तो हो सकता था। अतः मुनि पुण्यविजय जी द्वारा कल्पित किया गया 'धर्म का निर्वाह करनेवाला' अर्थ मान्य नहीं हो सकता । ३ 'यापञवकेहि' में चतुर्थी नहीं, तृतीया इसके अतिरिक्त 'यापञावकेहि' का जो 'यापज्ञापकों के लिए' इस प्रकार सम्प्रदानकारक-रूप अर्थ किया गया है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि उसमें तृतीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है, चतुर्थी का नहीं । अतः वह करणकारक है । पालि और प्राकृत में सम्प्रदानकारक का बोध कराने के लिए षष्ठी का प्रयोग होता है । ६५ उदाहरण इसी शिलालेख में देखे जा सकते हैं, यथा ६४. ' अनेकान्त ' / वर्ष १ / किरण ६,७ / वैशाख, ज्येष्ठ, वीर नि. २४५६ / पृष्ठ ३५२ । ६५. 'चतुर्थ्याः षष्ठी' (सिद्धहेमशब्दानुशासन ३ / १३१) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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