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५२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०२ अपना लेने के लिए कहा, तब कुछ ने तो अपना लिया, किन्तु कुछ युवा साधुओं ने क्रोध में आकर स्थूलाचार्य का दण्डप्रहार से वध कर दिया। स्थूलाचार्य मरकर व्यन्तर हुए और उन्हें सताने लगे। तब उनके प्रकोप को शान्त करने के लिए युवा साधुओं ने कहा कि हम आपकी पूजा किया करेंगे, आप हम पर प्रसन्न हों। इससे व्यन्तर शान्त हो गया और वे साधु मृतक स्थूलाचार्य की हड्डियाँ ले आये और उनमें गुरु की कल्पना कर पूजने लगे।६३ इस तरह अस्थिपूजा का प्रचलन अर्धफालकसम्प्रदाय के साधुओं ने किया था, न कि भद्रबाहु के दिगम्बर शिष्यों ने। तथा भद्रबाहु के शिष्य तो शुरू से ही नग्न रहते थे, अतः उनके द्वारा यापनीयसंघ की स्थापना कर नग्न रहने का निर्णय किये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। रत्ननन्दी ने तो भद्रबाहुचरित में यह लिखा है कि करहाटक नाम के नगर में राजा से सत्कार पाने के लिए उनकी रानी नृकुलादेवी के प्रार्थना करने पर श्वेताम्बर साधुओं ने वस्त्रत्याग कर नग्नरूप धारण कर लिया था, किन्तु सिद्धान्त श्वेताम्बरपरम्परा के ही मानते रहे, इस प्रकार श्वेताम्बरसाधुओं से यापनीय-सम्प्रदाय का जन्म हुआ था। (भ.बा.च. ४/१३७-१५४)। अतः माननीय जायसवाल जी ने जो यह कहा है कि 'भद्रबाहुचरित' के अनुसार यापनीय-सम्प्रदाय का उदय दिगम्बर-श्वेताम्बर-संघभेद के पूर्व हुआ था, वह प्रामाणिक नहीं है।
प्रसिद्ध इतिहासकार माननीय शान्ताराम भालचन्द्र देव ने जायसवाल जी के इस मत से असहमति प्रकट की है। वे लिखते हैं
"Inspite of this alleged identity of Yāpa with the yāpaniyas which JAYASWAL wants to bring out, it may be noted that neither literary nor epigraphical sources are available of such antiquity, as ascribed to the Khāravela inscription, to corroborate the existence of Yāpanīyas in the second century B.C.” (S.B. Deo : History of Jaina Monachism, p.96)
श्री जायसवाल जी ने आगे चलकर यापजावकेहि पद का मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा बतलाया अर्थ (धर्म का निर्वाह करनेवालों के लिए) स्वीकार कर लिया। ६३. स्थूलाचार्यस्ततः प्रोचे नैतदर्शनमुत्तमम्। किम्पाकफलवद्रम्यमधुनाग्रेति दुःखदम्॥
मूलमार्ग परित्यज्य कापथं कल्पयन्ति ये। भ्रमन्ति ते भवारण्ये मरीचाद्या यथा पुरा॥ दुष्टैश्चण्डैः शिष्यमौण्डैदण्डैदण्डैर्हतो हठात्। जीर्णाचार्यस्ततो क्षिप्तो गर्ते कूटेन तत्र तैः॥ कुशिष्याणां हि शिक्षापि खलमैत्रीव दुःखदा। मृत्वार्तध्यानतः सोऽपि व्यन्तरः समजायत। विद्वित्वावधिबोधेन देवोऽसौ पूर्वसम्भवम्। चकार मुनिमन्यानां नितरां दुरुपद्रवम्॥ नीत्वातिविनयाच्छान्तिं कुपितं व्यन्तराऽमरम्। गुरोरस्थिं समानीय तत्र सङ्कल्पते गुरुः ॥ नित्यमर्चन्ति वन्दन्ते लोकेऽद्यापि लपन्ति तम्। खमणादिहडीत्याख्यं क्षपणास्थिप्रकल्पनात् ॥ यथाविधि परिस्थ्याप्य पूजितः सोऽर्द्धफालकैः। परित्यक्तं ततस्तेन चेष्टितं विक्रियामयम् ॥ (रत्ननन्दी : भद्रबाहुचरित / परिच्छेद ४ / श्लोक १२, १३, १८, १९, २०, २५, २६, २८)।
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