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अ०७/प्र०२
यापनीयसंघ का इतिहास / ५१९ "मान्य विद्वन्महोदय श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवाल महाशय ने कलिंगचक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख का वाचन, छाया और अर्थ आदि बड़ी योग्यता के साथ किया है। तथापि उस शिलालेख में अद्यापि ऐसे अनेक स्थान हैं, जो अर्थ की अपेक्षा शंकित हैं। --- श्रीमान् जायसवाल महाशय ने कायनिसीदीयाय यापत्रावकेहि इस अंश की कायनिषीद्यां पापज्ञापकेभ्यः ऐसी संस्कृत-छाया करके "कायनिषीदी (स्तूप) पर (रहनेवालों) पाप बताने-वालों (पापज्ञापकों) के लिए," ऐसा जो अर्थ किया है, इसके बदले में उपरि-निर्दिष्ट अंश की छाया और इसका अर्थ इस प्रकार करना अधिकतर उचित होगा
"छाया-'कायनषेधिक्या यापनीयकेभ्यः-यापनीयेभ्यः।'
"अर्थ-(केवल मन और वचन से ही नहीं, बल्कि) काय के द्वारा प्राणातिपात आदि अशुभ क्रियाओं की निवृत्ति द्वारा (धर्म का) निर्वाह करने वालों के लिए।"६१
यहाँ मुनि जी ने श्री जायसवाल द्वारा किये गये ‘पापज्ञापक' जैसे अर्थों को शंकित बतलाया है। इससे सहमति व्यक्त करते हुए 'अनेकान्त' के तत्कालीन सम्पादक पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने यह टिप्पणी की है-"अर्थ की अपेक्षा ही नहीं, किन्तु शब्दसाहित्य की अपेक्षा भी अभी शंकित हैं। प्रकृत पंक्ति का पाठादिक भी पहले कुछ प्रकट किया था और पीछे से कुछ, और इसलिए उसकी विशिष्ट जाँच होने की जरूरत है। 'नागरी प्रचारिणी' पत्रिका भाग १०, अङ्क ३ में 'जो कदाचित् यापज्ञापक कहलाते थे' ऐसा भी लिखा है।"६२ इन दो महानुभावों की उक्त टिप्पणियों से मेरे इस मत की पुष्टि होती है कि 'यापजावकेहि' शब्द के विषय में माननीय जायसवाल जी अन्त तक अनिश्चय की स्थिति में रहे हैं।
श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल का पूर्वोद्धृत (अँगरेजी लेख में व्यक्त) यह मत भी समीचीन नहीं है कि "भद्रबाहुचरित के उल्लेख के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्यों में से कुछ अपने मृत गुरु की अस्थियों को पूजते थे, उन्होंने ही यापनीयसंघ को जन्म दिया और अन्ततः नग्न रहने का निर्णय किया।" अस्थिपूजा उन साधुओं ने शुरू की थी, जिन्होंने द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय भद्रबाहु के साथ दक्षिणभारत जाने से इनकार कर दिया था और उत्तरभारत की दुर्भिक्षजन्य विपत्तियों से विचलित होकर वस्त्रपात्रादि ग्रहण कर लिये थे तथा अर्धफालक साधु कहलाने लगे थे। दुर्भिक्ष समाप्त होने के बाद उनके गुरु स्थूलाचार्य ने उनसे मूल निर्ग्रन्थमार्ग (दिगम्बरमार्ग) ६१. मुनि पुण्यविजय जी : 'महाराजा खारवेलसिरि के शिलालेख की १४वीं पंक्ति' ('अनेकान्त'/
वर्ष १/ किरण ३/ माघ, वीर नि.सं. २४५६ / विक्रम सं. १९८६ / पृ. १४२)। ६२. वही / पादटिप्पणी / पृ. १४२।
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