SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 711
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०७/प्र०१ यापनीयसंघ का इतिहास / ५१५ है। स्व० पण्डित नाथूराम जी प्रेमी ने तत्त्वार्थभाष्य को यापनीय कृति माना है। इसका खण्डन करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं___ "भाष्य तो यापनीय-परम्परा के पूर्व का है। भाष्य तीसरी-चौथी शती का है और यापनीय-सम्प्रदाय चौथी-पाँचवीं शती के पश्चात् ही कभी अस्तित्व में आया है।" (जै.ध.या.सं./ पृ.३५७)। उमास्वाति के सम्प्रदाय का निर्धारण करते समय भी डॉक्टर सा० लिखते हैं-"वे यापनीय भी नहीं हैं, क्योंकि यापनीय-सम्प्रदाय का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रमाण भी विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध और ईसा की पाँचवीं शती के उत्तरार्ध (ई० सन् ४७५) का मिलता है।" (जै. ध. या. स./पृ.३७३)।। अन्यत्र भी उन्होंने कहा है-"तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक यापनीय उत्पन्न ही नहीं हुए थे, अतः उसे यापनीय (ग्रन्थ) भी नहीं कहा जा सकता है।" (जै. ध. या. स./ पृ.३५०)। एक स्थान पर उन्होंने अपना मत निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-"यह सही है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से वस्त्रपात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारंभ हो गया था, फिर भी यह निश्चित है कि पाँचवीं शताब्दी से पूर्व श्वेताम्बर दिगम्बर और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बर), श्वेतपटमहाश्रमणसंघ और यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख हल्सी के पाँचवीं शती के अभिलेखों में ही मिलता है।" (जै. ध. या. स. / पृ. ३६८)। इस प्रकार यापनीयसंघ का उत्पत्तिकाल ईसा की पाँचवीं शती का प्रारंभ ही सिद्ध होता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने पूर्वोद्धृत वचनों में श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ में माना है, वह समीचीन नहीं है। डॉ० मोहनलाल जी मेहता लिखते हैं-"जैन परम्परा के अनुसार विक्रमसंवत् ५८५ अथवा वीरसंवत् १०५५ अथवा ई०स० ५२९ में हरिभद्रसूरि का देहावसान हो गया था। इस मान्यता को मिथ्या सिद्ध करते हुए हर्मन जेकोबी लिखते हैं कि ई० सन् ६५० में होनवाले धर्मकीर्ति के तात्त्विक विचारों से हरिभद्र परिचित थे, अतः यह संभव नहीं है कि हरिभद्र ई० सन् ५२९ के बाद न रहे हों। हरिभद्र के समयनिर्णय का एक प्रबल प्रमाण उद्योतन का कुवलयमाला नामक प्राकृत ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ शक संवत् ७०० की अन्तिम तिथि अर्थात् ई० सन् ७७९ के मार्च की २१ वीं तारीख को पूर्ण हुआ था। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में उद्योतन ने हरिभद्र का अपने दर्शनशास्त्र के गुरु के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy