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________________ ५१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ से यापनीयसंघ का उद्भव हुआ।८ किन्तु उसकी एक अन्य प्रति में वि० सं० ७०५ के स्थान पर वि० सं० २०५ (ई० सन् १४८) लिखा हुआ है। इस पर टिप्पणी करते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं "हमारे पास जो तीन प्रतियाँ हैं, उनमें से दो के पाठों से तो इसकी उत्पत्ति का समय वि० सं० ७०५ मालूम होता है और तीसरी 'ग' प्रति के पाठ से वि० सं० २०५ ठहरता है। यद्यपि यह तीसरी प्रति बहुत ही अशुद्ध है, परन्तु ७०५ से बहुत पहले यापनीयसंघ हो चुका था, इस कारण इसके पाठ को ठीक मान लेने को जी चाहता है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में हरिभद्र नाम के एक बहुत प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। विक्रम संवत् ५८५ में५° उनका स्वर्गवास हुआ है और उन्होंने अपनी 'ललितविस्तरा टीका' में यापनीयतंत्र का स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे मालूम होता है कि ५८५ से बहुत पहले यापनीयसंघ का प्रादुर्भाव हो चुका था। इसके सिवाय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे ब्रांच के जर्नल की जिल्द १२ (सन् १८७६) में कदम्बवंशी राजाओं के तीन दानपत्र प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से तीसरे में अश्वमेधयज्ञ के करानेवाले महाराज कृष्णवर्मा के पुत्र देववर्मा के द्वारा यापनीयसंघ के अधिपति को मन्दिर के लिए कुछ जमीन वगैरह दान की जाने का उल्लेख है। चेरा-दानपत्रों में भी इसी कृष्णवर्मा का उल्लेख है और उसका समय वि० संवत् ५२३ के पहले है। अत एव ऐसी दशा में यापनीयसंघ की उत्पत्ति का समय आठवीं नहीं, किन्तु छट्ठी शताब्दी के पहले-पहले समझना चाहिए। आश्चर्य नहीं जो 'ग' प्रति का २०५ संवत् ही ठीक हो। दर्शनसार की अन्य दो-चार प्रतियों के पाठ देखने से इसका निश्चय हो जायगा।"५१ यद्यपि प्रेमी जी का यह कथन सत्य है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति वि० सं० ७०५ से बहुत पहले हो चुकी थी, तथापि दर्शनसार की २९ वी गाथा में 'वि० सं० ७०५' पाठ ही युक्तियुक्त प्रतीत होता है, २०५ नहीं। क्योंकि दर्शनसार में विक्रम की मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न हुए संघों का जिस क्रम से वर्णन है, उसी क्रम से उनका विक्रम संवत्-वर्ष उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ निर्दिष्ट किया गया है। जैसे ४८. कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो॥ २९ ॥ दर्शनसार। ४९. 'दुण्णिसए पंच उत्तरे' (वही / पादटिप्पणी/ गाथा २९/ पृष्ठ १३)। ५०. हरिभद्रसूरि का काल स्वयं श्वेताम्बर विद्वानों के अनुसार ८ वीं शताब्दी ई. है। ५१. दर्शनसार-विवेचना / दर्शनसार / पृ. ३८-३९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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