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________________ अ० ७ / प्र० १ यापनीयसंघ का इतिहास / ५११ रचित साहित्य भी दक्षिण भारत में ही उपलब्ध हुआ है । ये तथ्य इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं कि यापनीय - सम्प्रदाय का उत्पत्तिस्थल दक्षिण भारत ही है । प्राचीन इतिहास के विद्वान् श्री काशीप्रसाद जायसवाल भी लिखते हैं- “The Yapana-Sangha flourished in the South as they prominently appear in Carnatic inscriptions.”47 १० उत्पत्तिकाल : पाँचवीं शती ई० का प्रथम चरण मुनि श्री कल्याणविजय जी, पं० दलसुखभाई मालवणिया एवं डॉ० सागरमल जी जैन ने बोटिकमत को यापनीयमत माना है, अतः वे बोटिकमत के उत्पत्तिकाल वीरनिर्वाण संवत् ६०९ अर्थात् ई० सन् ८२ को ही यापनीयमत का उत्पत्तिकाल मानते हैं । किन्तु यह सिद्ध हो चुका है कि बोटिकमत यापनीयमत नहीं था, इसलिए यह भी सिद्ध हो जाता है कि यापनीयसंघ का उत्पत्तिकाल ई० सन् ८२ नहीं है। डॉ० सागरमल जी ने भी आगे चलकर अपना मत बदल दिया और यह नया मत प्रस्तुत किया कि यापनीय और श्वेताम्बर सम्प्रदायों की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में उत्तरभारतीय - सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के विभाजन से हुई थी। इस सम्प्रदाय के अस्तित्व की कल्पना डॉक्टर सा० ने स्वयं की है । (देखिये, अध्याय २/ प्र.३/ शी. १) । श्वेताम्बर साहित्य में यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख ८ वीं शताब्दी ई० के आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के ललितविस्तरा ग्रन्थ में मिलता है । तदनन्तर षड्दर्शनसमुच्चय के टीकाकार गुणरत्न ( १४वीं शती ई०) ने अपनी टीका में उल्लेख किया है। इन दो ग्रन्थों के अतिरिक्त श्वेताम्बरसाहित्य में और कहीं भी यापनीय - सम्प्रदाय का वर्णन नहीं मिलता। दिगम्बरसाहित्य में आचार्य हरिषेण (१०वीं शती ई०) ने 'बृहत्कथाकोश' के अन्तर्गत भद्रबाहुकथानक में, देवसेनसूरि (१०वीं शती ई०) ने 'दर्शनसार' में तथा रत्ननन्दी ( १५ वीं शती ई०) ने 'भद्रबाहुचरित' में यापनीय - सम्प्रदाय का निर्देश किया है। देवसेनसूरि (१०वीं शती ई०) ने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों द्वारा रचित गाथाओं का संग्रह किया है। उसकी २९ वीं गाथा में कहा गया है कि विक्रम राजा की मृत्यु के ७०५ (ई० ६४८) वर्ष बाद कल्याणनगर में श्रीकलश नामक श्वेताम्बरमुनि 47. Quoted in his book 'History of Jaina Monachism' on page 95, by Shantaram Bhalchandra Deo. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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