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________________ ५१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ कोल्हापुर एवं गुलवर्गा आदि जिलों के क्षेत्र में अत्यधिक विपुलता से था।४२ आन्ध्र और तमिलनाडु में इस संघ से संबंधित जो सामग्री प्राप्त है, वह बहुत ही थोड़ी है। श्रवणबेलगोल में यापनीयसंघ से संबंधित कुछ भी सामग्री का न मिलना इस बात का द्योतक है कि इस पीठ का विकास यापनीय साधुओं को छोड़कर अन्य साधुओं के सहयोग से हुआ। कर्नाटक के उत्तरभाग में ही यापनीयों का जोर था, जो मुख्यतया मंदिरों और संस्थाओं से सम्बन्धित रहते थे (और इनमें नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की ही प्रतिमाओं के प्रति अधिक आग्रह रहता था)।" (पृ.२५०-२५१)।३ यापनीय साहित्य के विषय में डॉ० ए० एन० उपाध्ये लिखते हैं कि "विख्यात यापनीयों के द्वारा निर्मित साहित्य मुख्यतया दक्षिण भारत में ही उपलब्ध होता है।" उपसंहार करते हुए डॉ० उपाध्ये ने लिखा है-"उपर्युक्त विस्तृत विवरणों से यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के शिलालेखों व विवरणों में यापनीयों का प्रसंग बहुलता से विद्यमान है, पर हमें यह भी देखना है कि कन्नड़ और उसके समकक्ष साहित्य में भी यापनीयसंघ के कुछ संदर्भ मिलते हैं कि नहीं? हरिषेण की (९३१-३२ ई०) बृहत्कथा (नं. १३१) में तथा कन्नड़ के 'वड्डाराधने' में थोड़ा बहुत जापुलिसंघ का उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्रसंग बड़े भ्रामक हैं, फिर भी दोनों ही ग्रंथों में अर्धफालक, काम्बलिक, श्वेतभिक्षु और यापनीय का उल्लेख है। १२ वीं सदी ई० के कवि जन्न के कन्नड़ 'अनन्तनाथपुराण' में काणूगण (२.२५) के रामचन्द्रदेव का उल्लेख है और वह मुनिचन्द्र विद्य को जावलिगेय विशेषण से अलंकृत करता है, पर उसकी सही और स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता है। सम्भवतः यह वही मुनिचन्द्र हैं, जिनका उल्लेख पार्श्वपंडित (१२२२ ई०) ने अपने कन्नड़ 'पार्श्वनाथ पुराण' (१३३) में किया है।०५ मेरे विचार से 'जावलिगेय' विशेषण उनके संघ यापनीय के लिए ही जोड़ा गया है। सबसे अधिक रोचक तो यह है कि कवि जन्न ने जटासिंहनन्दी को और इन्द्रनन्दी को काणूगण का बताया है, जो कि यापनीयसंघ से घनिष्ठता से सम्बन्धित था। कवि जन्न द्वारा की गई विभिन्न आचार्यों की स्तुति से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गण, गच्छ आदि की पृथक्तावादी प्रवृत्ति को इन कवियों ने नहीं माना था।"४६ इस विस्तृत सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि यापनीयों से सम्बन्धित सभी शिलालेख एवं ताम्रपत्रलेख दक्षिण भारत में ही पाये गये हैं, अन्यत्र नहीं। तथा यापनीयों द्वारा ४२. See also P.B. Desai, Ibidem, P.P. 164 F. ४३. 'अनेकान्त' महावीर निर्वाण विशेषांक / १९७५ ई./ पृ. २४७-२५१ । ४४. वही / पृ.२५२। ४५. भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९७०/ पृ. १६०-६१। ४६. 'अनेकान्त'। महावीर निर्वाण विशेषांक /१९७५ ई./ पृ. २५२-२५३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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