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अ०७/प्र०१
यापनीयसंघ का इतिहास / ५०७ है। इसमें रट्टवंशीय महासामन्त अङ्क, शान्तियक्क और कूण्डिप्रदेश का उल्लेख है। यह किसी जैनमंदिर को दिया गया अनुदान-पत्र है। इसमें यापनीयसंघ मइलापान्वय कारेयगण के मुलभट्टारक और जिनदेवसूरि का विशेष रूप से स्पष्ट उल्लेख है।२५ विक्रमादित्य षष्ठ के शासनकालीन हूलि (जिला बेलगाँव) लेख में यापनीयसंघ-कण्डूगण के बाहुबलि, शुभचन्द्र, मौनिदेव और माघनन्दी आदि का उल्लेख मिलता है।२६ एक्साम्बि (जिला बेलगाँव) में विजयादित्य (शिलाहार गण्डरादित्य के पुत्र) के सेनापति कालन (ण) द्वारा निर्मित नेमिनाथ वसदि से प्राप्त लेख द्वारा ज्ञात होता है कि यापनीयसंघपुन्नागवृक्षमूलगण के महामंडलाचार्य विजयकीर्ति को मन्दिर के लिए भूमिदान किया गया था। इनकी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार मिलती है : मुनिचन्द्र, विजयकीर्ति, कुमारकीर्ति
और विद्य विजयकीर्ति आदि। रट्ट कार्तिवीर्य ने ११७५ ई० में इस मन्दिर के ससम्मान दर्शन किए थे।२७ १२वीं सदी के मध्य में लिखे गये आर्सीकेरे (मैसूर) लेख में जैनमंदिर को दिए गए अनुदान का उल्लेख मिलता है। इस लेख के प्रारंभिक छन्दों में से एक छन्द में मडुवगण यापनीय (संघ) की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, मूर्तिप्रतिष्ठा पोन्नागवृक्षमूलगण और संघ (यापनीय) के शिष्य माणिकशेहि द्वारा कराई गई थी, प्रतिष्ठाचार्य थे कुमारकीर्ति सिद्धान्त जो यापनीयसंघ मडुवगण से सम्बन्धित थे। एक दूसरे लेख में इसके दानकर्ता का नाम यापनीयसंघ के सोमय्य का है। दूसरे अन्य विवरणों की भाँति इसमें भी जनसामान्य को यापनीयसंघ से सुसम्बद्ध किया है। दूसरे, इस लेख के सम्पादक का मत है कि इसमें से यापनीय शब्द को मिटा दिया गया है। तीसरे, 'काष्ठामुखप्रतिबद्ध' जैसा शब्द बाद में इसमें जोड़ा गया है, पर यह सब सर्वथा अतिशयोक्ति है। वैसे यापनीयों के विरुद्ध कुछ द्वेष तो अवश्य दर्शाया गया है, पर कोई पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि उनका काष्ठामुख की ओर झुकाव हो, क्योंकि 'काष्ठामुखप्रतिबद्ध' शब्द स्वयं बाद में जोड़ा गया है, पर यह समझ में नहीं आता कि इस असंगति को हटाने के लिए जिसने काष्ठामुख-प्रतिबद्ध शब्द जोड़ा है, उसी ने यापनीय शब्द को मिटाया हो।२८ १२ वीं सदी के लोकपुर के (जिला बेलगाँव) विवरण में लिखा है कि ब्रह्म (कल्लभावुण्ड के पुत्र) उभयसिद्धान्तचक्रवर्ती, यापनीयसंघ के कण्डूर्गण के सकलेन्दु सिद्धान्तिक के शिष्य थे।२९ तेंगलि (जिला गुलवर्ग) में १२वीं सदी की प्रतिमा है, जिसके पीठिकालेख से ज्ञात होता है कि इसकी
२५. A.R.S.I.E. 1951-52 , No. 33 , p. 12. (जै.शि.सं. / भा.ज्ञा. / भा.४ / ले.क्र. २०९)। २६. E.I.XVIII , P.P. 201 F. २७. A.R. of the Mysore Arch. Deptt. 1961, pp. 48 FF. २८. Ed. S. Sattar : J. of the Karnatak University, X, 1965, 159 FE. (Kannada). २९. कन्नड शोध संस्थान, धारवार १९४२-४८, नं. ४७।
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