________________
५०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०१ शुक पूछता है-"से किं तं नोइंदियजवणिज्जे?" अनुवाद-"नोइन्द्रिययापनीय क्या है?"
थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं-"सुया! जन्नं कोह-माण-माया-लोभा खीणा, उवसंता, नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे।"
अनुवाद-“हे शुक! मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय क्षीण हो गये हों, उपशान्त हो गये हों, उदय में न आ रहे हों, यही मेरा नोइन्द्रिययापनीय कहलाता है।"
इस संवाद में 'इन्द्रिययापनीय' का अर्थ यह बतलाया गया है कि मेरी इन्द्रियाँ बिना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जीवन के कार्यों के निर्बाध सम्पन्न होने को 'यापनीय' कहते हैं। यह तभी संभव है जब कार्य स्वशक्त्यनुरूप हों।
___ व्याकरण के अनुसार विचार करने पर यापनीय शब्द इसी प्रकार के अर्थ का वाचक सिद्ध होता है। 'याप्' 'या' धातु का प्रेरणार्थक रूप है। मोनियर विलियम्ससंस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी के अनुसार इसका अर्थ किसी को जाने के लिए प्रेरित करने तथा चिकित्सा करने के अतिरिक्त किसी कार्य को शक्य, सरल और सुविधामय बनाना भी है। अतः इसमें परिस्थिति (देश-काल) के अनुसार परिवर्तन करना अर्थ भी गर्भित है। 'अनीयर्' प्रत्यय के योग से 'यापनीय' शब्द बनता है। तब इसका अर्थ होता है शक्य या व्यवहार्य। श्री हरिभद्रसूरि ने भी आवश्यकसूत्र की टीका में पृ.४६-४७ पर 'यापनीयया यथाशक्तियुक्तया नैषेधिक्या प्राणातिपात-निवृत्तया तन्वा शरीरेणेत्यर्थः (यापनीय अर्थात् यथाशक्तियुक्त शरीर द्वारा नैषेधिकी अर्थात् प्राणातिपातनिवृत्ति से) इस व्याख्या से यापनीय शब्द का 'स्वशक्त्यनुरूप' या 'शक्य' अर्थ ही प्ररूपित किया है। यतः 'स्वशक्त्यनुरूप प्रवृत्ति' का वाचक 'यापनीय' शब्द श्वेताम्बरसाहित्य में ही मिलता है, दिगम्बरसाहित्य में नहीं, इससे सिद्ध है कि यापनीयों ने अपने लिए 'यापनीय' नाम श्वेताम्बरसाहित्य से ही ग्रहण किया है। यह भाषागत ऐक्य इस बात का प्रमाण है कि श्वेताम्बरसंघ ही यापनीयों का मूल है।
इस प्रकार अपने सम्प्रदाय का 'यापनीय' नामकरण कर यापनीयों ने यह ध्वनित किया है कि उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग यापनीय है अर्थात् सबके लिए शक्य या व्यवहार्य है। उसमें व्यक्ति एवं देश-काल के अनुसार सुविधामय नियम अपनाये जा सकते हैं। इस तरह 'यापनीय' शब्द के व्याकरणसिद्ध अर्थ से भी यह संकेत मिलता है कि सवस्त्रमुक्ति मानते हुए भी यापनीयों ने जो नग्नत्वरूप द्रव्यलिंग अपनाया था, उसका उद्देश्य लोकमान्यता और राजमान्यता प्राप्त कर अपने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org