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________________ अ०७/प्र०१ यापनीयसंघ का इतिहास / ५०१ अनुवाद-"एक तरफ बैठे आयुष्मान् भृगु से भगवान् ने पूछा-"कहो भिक्षु ! सब कुछ कुशल से तो चल रहा है? सब कुछ सुखपूर्वक तो बीत रहा है? भिक्षा मिलने में कोई कठिनाई तो नहीं होती?" भृगु उत्तर देते हैं-"हाँ भन्ते! सब कुछ कुशलपूर्वक, सुखपूर्वक बीत रहा है, यापन हो रहा है, भिक्षा में कोई कठिनाई नहीं होती।" ___इस संवाद से स्पष्ट होता है कि खमनीय (क्षमणीय) का अर्थ है 'कुशलमय स्थिति' तथा 'यापनीय' का अर्थ है 'सुखमय स्थिति' या 'जीवनयोग्य स्थिति' अर्थात् अनुकूल या निर्बाध स्थिति। श्वेताम्बरागम ज्ञाताधर्मकथांग (अध्ययन ५-शैलक / पृ. १७४-१७५) में भी शुक परिव्राजक ओर थावच्चापुत्र अनगार के बीच ऐसा ही संवाद होता है। शुक थावच्चापुत्र से पूछता है "जत्ता ते भंते? जवणिज्जं ते? अव्वाबाहं पि ते? फासुयं विहारं ते?" अनुवाद-"भगवन्! आपकी यात्रा चल रही है? आपका यापनीय भी है? आपका अव्याबाध भी है? और आपका प्रासुक विहार भी हो रहा है?" थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं- "सुया! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे।" ___ अनुवाद-“हे शुक! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा है, अव्याबाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है।" शुक थावच्चापुत्र से प्रश्न करता है-"से किं तं भंते! जवणिज्जे?" अनुवाद-"भगवन्! आपका यापनीय क्या है?". थावच्चापुत्र कहते हैं-"सुया! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - इंदियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य।" अनुवाद-"शुक! यापनीय दो प्रकार का है-इन्द्रिययापनीय और नोइन्द्रिययापनीय।" शुक पूछता है-"से किं तं इंदियजवणिज्जे?" अनुवाद-"इन्द्रिययापनीय क्या है?" थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं-"जं णं मम सोइंदिय चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदियफासिंदियाइं निरुवहयाइं वसे वट्टति, से तं इंदियजवणिज्जं।" अनुवाद-"शुक! मेरी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय बिना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती हैं, यही मेरा इन्द्रिययापनीय है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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