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५०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०१ आचार्य न केवल मठाधीश बन गये थे, अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे।" (जै.ध.या.स./ पृ. २८)।
इन अभिलेखों से आचार्य रत्ननन्दी का यह कथन विश्वसनीय प्रतीत होता है कि यापनीय-सम्प्रदाय की स्थापना करनेवाले श्वेताम्बरसाधुओं ने जीवन-यापन की सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए ही दिगम्बरवेश धारण किया था। दिगम्बरलिंग उनके लिए वैद्यक
और तन्त्र-मन्त्र के समान उदरपोषण-मात्र का साधन था। दार्शनिक दृष्टि से वे पूर्ण श्वेताम्बर थे। इस तरह सवस्त्रमुक्ति मानते हुए भी दिगम्बरवेश धारण करने का यापनीयसिद्धान्त दार्शनिक दृष्टि से तो युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, मात्र उदरपोषण की व्यावहारिक दृष्टि ही उसे युक्तिसंगत बनाती है।
यहाँ प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या यह नहीं हो सकता था कि दिगम्बर साधुओं ने ही लोकमान्यता और राजमान्यता की प्राप्ति के लिए श्वेताम्बरसिद्धान्त अपनाकर यापनीयसंघ की स्थापना की हो? उत्तर यह है कि ऐसा नहीं हो सकता था, क्योंकि दिगम्बरसाधुओं को अपने नग्नवेश के कारण वैसे ही सर्वाधिक लोकमान्यता और राजमान्यता प्राप्त थी। इसके अतिरिक्त यदि दक्षिण में श्वेताम्बर-सिद्धान्तों का राजा-प्रजा पर प्रभाव होता, तो यापनीयों को श्वेताम्बरवेश त्यागकर दिगम्बरवेश धारण करने की जरूरत न पड़ती।
'यापनीय' नाम श्वेताम्बरसाहित्य से गृहीत _ 'यापनीय' शब्द के अर्थ से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सवस्त्रमुक्ति मानते हुए भी यापनीयों ने जो नग्नवेश अपनाया था, उसका उद्देश्य परिस्थितियों से समझौता करना था। यापनीय शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग केवल बौद्धसाहित्य और श्वेताम्बरसाहित्य में मिलता है, दिगम्बरसाहित्य में नहीं। दिगम्बरसाहित्य में यापनीयसंघ का उल्लेख मात्र मिलता है।
__बौद्धसाहित्य में 'यापनीय' शब्द का अर्थ है 'सुखमय स्थिति', 'जीने योग्य स्थिति', 'अनुकूल स्थिति' या 'निर्बाध स्थिति।' विनयपिटक के महावग्गपालि में कहा गया
"एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं भगुं भगवा एतदवोच-कच्चि भिक्खु खमनीयं, कच्चि यापनीयं, कच्चि पिण्डकेन न किलमसी ति? खमनीयं भगवा, यापनीयं भगवा, न चाहं भन्ते पिण्डकेन किलमामी ति।" (बालकलोणक-गमनकथा / कोसम्बक्कखन्धक। महावग्गपालि / पृ.५८४)।
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