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अ०७/प्र०१
यापनीयसंघ का इतिहास / ४९९ ___ इस सम्प्रदाय की जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने किया है, उनसे भी इस बात की पुष्टि होती है कि यापनीय-सम्प्रदाय का उदय जीवनयापन को सुविधामय बनाने के उद्देश्य से ही हुआ था। वे लिखते हैं
"कर्नाटक के उत्तरभाग में यापनीयों का जोर था, जो मुख्यतया मन्दिरों और संस्थाओं से सम्बन्धित रहते थे (और इनमें नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की ही प्रतिमाओं के प्रति अधिक आग्रह रहता था)। विशेष महत्त्व की बात यह दिखाई देती है कि यापनीय साधु मन्दिरों के प्रबन्ध-व्यवस्थापक या संघों के भरण-पोषण कर्ता के ही रूप में विशेषतया दिखाई देते हैं, जो प्रायः राजाओं या समाज के अन्य विशिष्टवर्ग के व्यक्तियों से अनुदान में भूमि, बाग आदि प्राप्त किया करते थे। इनकी कार्यपद्धतियाँ अपने क्षेत्र में थोड़ी-बहुत आधुनिक भट्टारकों की भाँति प्रचलित थीं।--- उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यापनीयसंघ का जनसामान्य पर कोई विशेष प्रभाव न था। उसका सम्बन्ध तो कुछ विशिष्ट वंशों या व्यक्तियों तक ही सीमित था, जिनकी इस संघ के साधुओं या आचार्यों पर विशिष्ट श्रद्धा-भक्ति थी।"
यापनीयसंघ का उल्लेख करनेवाला अभिलेख सन् ४७५-४९० ई० के कदम्बवंशीय राजा मृगेशवर्मन् का है। इसमें यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों का उल्लेख है। दूसरा अभिलेख ४९७-५३७ ई० का है, जिसमें कहा गया है कि मृगेशवर्मन् के पुत्र ने यापनीय साधुओं को कुछ ग्राम अनुदान में दिये थे, जिनकी आमदनी से पूजा-प्रतिष्ठा के अनुष्ठान किये जाते थे और यापनीयसाधुओं का चार माह तक भरण-पोषण किया जाता था। इन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि प्रायः अपने उत्पत्तिकाल से ही यापनीयसाधु जीवनयापन के लिए राजाओं के दान पर आश्रित थे।
उक्त अभिलेखों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर डॉ० सागरमल जी भी लिखते हैं-"इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीयसंघ के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी, अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने के उल्लेख नहीं होते।" (जै.ध.या.स./ पृ.२७)
ई० सन् ८१२ के राष्ट्रकूट-राजा प्रभूतवर्ष के अभिलेख (क्र. १२४ / जै.शि.सं./ मा.च. / भा.२) से ज्ञात होता है कि यापनीय आचार्य अर्ककीर्ति ने शनि के दुष्प्रभाव से ग्रसित कुनुन्गिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार किया था। इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ० सागरमल जी कहते हैं-"ईसा की नवीं शताब्दी के प्रारंभ में यापनीय
७. वही । 'अनेकान्त'। महावीर निर्वाण विशेषांक सन् १९७५ / पृ. २५१। ८. वही / पृष्ठ २४७ / सम्बन्धित अभिलेख क्र. ९९ एवं १००/ जै.शि.सं./मा.च./ भा.२।
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