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________________ ४९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० १ मुनि कल्याणविजय जी ने स्वीकार किया है कि दक्षिण भारत में नग्न साधु बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। यह उनके निम्नलिखित वक्तव्य से ज्ञात होता है “यद्यपि शिवभूति के सम्प्रदाय का उद्भव उत्तरापथ में हुआ था, पर वहाँ उसका अधिक प्रचार नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है। प्राचीन स्थविरसंघ का उन दिनों वहाँ पूर्ण प्राबल्य फैला हुआ था और मथुरा के आस-पास के ९६ गाँवों में तो जैनधर्म राजधर्म के रूप में माना जाता था । इस स्थिति में शिवभूति या उनके अनुयायियों का वहाँ टिकना बहुत कठिन था । इस कठिनाई के कारण उस सम्प्रदाय ने उधर से हटकर दक्षिणापथ की तरफ प्रयाण किया, जहाँ आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार के कारण पहले ही नग्न साधुओं की तरफ जनसाधारण का सद्भाव था । वहाँ जाने पर इस सम्प्रदाय की भी अच्छी कदर हुई और धीरे-धीरे वह पगभर हो गया । " (श्र.भ.म. / पृ.३०० ) । अन्यत्र भी मुनि जी ने लिखा है - " कुन्दकुन्दाचार्य आदि के इन नये सिद्धान्तों से इस परम्परा को कुछ लाभ हुआ और कुछ हानि भी। लाभ यह हुआ कि ऐसी ऐकान्तिक अचेलकवृत्ति से दक्षिण देश में, जहाँ पहले से ही आजीविक आदि नग्नसम्प्रदायवालों का मान और प्रचार था, इनके अनुयायी गृहस्थों की संख्या काफी बढ़ गई और इस कारण साधुसमुदाय में भी वृद्धि हुई । " ( श्र. भ. म./ पृ. ३०६ ) । यद्यपि मुनिजी ने यापनीय - सम्प्रदाय के उदय के पूर्व दक्षिण में आजीविक - सम्प्रदाय के नग्नमुनियों का अस्तित्व बतलाया है, किन्तु दिगम्बर - सम्प्रदाय के साधु वहाँ ईसापूर्व चौथी शताब्दी में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में विहार करने से पूर्व विद्यमान थे और भद्रबाहु के वहाँ पहुँचने पर तो उनकी संख्या और बढ़ गई । इतिहास इसका गवाह है और डॉ० सागरमल जी ने भी इसे स्वीकार किया है । पर मुनि जी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि दिगम्बर- सम्प्रदाय यापनीय - सम्प्रदाय के बाद विक्रम की छठी शताब्दी में उत्पन्न हुआ था, इसलिए उन्होंने जानबूझकर दक्षिण में उसके पूर्व दिगम्बर - सम्प्रदाय के नग्न मुनियों का अस्तित्व न बतलाकर आजीविक-सम्प्रदाय के नग्नमुनियों का अस्तित्व बतलाया है। फिर भी उनके कथन से इस बात की पुष्टि तो होती ही है कि दक्षिणभारत में नग्नमुनि बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे । इसलिए दक्षिण में पहुँचे श्वेताम्बर मुनियों को वहाँ लोकमान्यता और राजमान्यता प्राप्त नहीं हुई। इसी कारण उसे पाने के लिए उन्होंने भीतर से श्वेताम्बर रहते हुए भी बाहर से दिगम्बरमुनियों का वेश धारण कर लिया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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