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अ०७/प्र०१
यापनीयसंघ का इतिहास / ४९७ उत्पन्न न हुआ हो, उनमें से कुछ साधु अचानक दिगम्बरों के द्रव्यलिङ्ग को अर्थात् नग्नत्व, मयूरपिच्छी और पाणितलभोजित्व को अपना लें, इसका क्या रहस्य है? इस रहस्य का उद्घाटन रत्ननन्दीकृत 'भद्रबाहुचरित' के कथानक से होता है। कथानक का वर्णन षष्ठ अध्याय में किया जा चुका है। उसका सार यह है कि दक्षिण में पहुँचे हुए कुछ श्वेताम्बर साधुओं ने आहारादि की सुविधा प्राप्त करने के लिए दिगम्बर साधुओं का द्रव्यलिङ्ग अपनाया लिया था, किन्तु अपने सिद्धान्तों में उन्होंने कोई परिवर्तन नहीं किया। सिद्धान्तों से वे श्वेताम्बर ही बने रहे। ये ही साधु यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुए। माननीय डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने भी यही मत व्यक्त किया है। रत्ननन्दी की उपर्युक्त यापनीयसंघोत्पत्तिकथा पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं- "ऐसा प्रतीत होता है कि रानी नृकुलदेवी श्वेताम्बर-विचारधारा की रही हों और उन दिनों दक्षिणभारत में श्वेताम्बर साधुओं को विशेष आदर एवं प्रसिद्धि नहीं प्राप्त थी, क्योंकि यदि इस करहाटक को आधुनिक महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित 'कहडि' नामक स्थान माना जाता है, तो निश्चय ही दक्षिण भारत में श्वेताम्बर साधुओं की विशेष मान्यता न थी। आचार्य देवसेन और रत्ननन्दी के उपर्युक्त विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि यापनीयसंघ श्वेताम्बरों के वर्गभेद के रूप में उद्भूत हुआ, भले ही ऊपर से उनका बाह्य परिवेश दिगम्बर साधुओं जैसा रहा हो।"६
निश्चय ही रत्ननन्दी-कृत कथा सत्य का उद्घाटन करती है। दक्षिणभारत की तत्कालीन परिस्थिति से इसका समर्थन होता है। परिस्थिति यह थी कि दक्षिण में दिगम्बर-परम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहु के पहुँचने के पूर्व से ही फल-फूल रही थी। दिगम्बर साधुओं ने अपने नग्नवेश से ज्ञापित निःस्पृहवृत्ति और सम्यक् संयम-तपपरीषहजय से काफी लोकप्रियता और राजमान्यता हासिल कर ली थी। इसलिए वे अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। दक्षिणवासियों ने साधुत्व की पराकाष्ठा का अनुभव कर लिया था। अतः साधुत्व का उससे किंचित् भी न्यून स्तर उनके लिए श्रद्धास्पद नहीं हो सकता था। फलस्वरूप जब श्वेताम्बर साधु दक्षिण पहुँचे, तब उनके सवस्त्ररूप को देखकर राजा-प्रजा में उनके प्रति आदरभाव उत्पन्न नहीं हुआ, न उन्हें लोकप्रियता प्राप्त हुई, न राजमान्यता, भिक्षा की प्राप्ति भी दुष्कर प्रतीत होने लगी, जिससे उनका वहाँ टिकना असंभव सा हो गया। इसी के फलस्वरूप प्रथम बार दक्षिण पहुँचे श्वेताम्बर साधुओं ने व्यावहारिकता से काम लिया। उन्होंने वेश तो दिगम्बर साधुओं का धारण कर लिया, किन्तु मन से श्वेताम्बर ही बने रहे। पर, इससे वे न तो श्वेताम्बरों के लिए स्वीकार्य हो सकते थे, न दिगम्बरों के लिए। फलस्वरूप उन्हें एक तीसरा नया सम्प्रदाय बनाना पड़ा, जो 'यापनीय' कहलाया। ६. 'जैन सम्प्रदाय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश'। अँगरेजी मूलपाठ के अनुवादक :
श्री कुन्दनलाल जैन / 'अनेकान्त'/ महावीर निर्वाण विशेषांक / सन् १९७५ / पृ.२४६ ।
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