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________________ ४९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ युक्तिसंगत है। इसकी युक्तिमत्ता श्वेताम्बराचार्यों ने भी स्वीकार की है। इसी प्रकार निरपवाद-सचेलमार्गी श्वेताम्बरपरम्परा में नग्नत्व को असंयम का कारण और वस्त्रग्रहण को संयम का उपकरण मान लिया गया है, इसलिए उसमें नग्नत्व के लिए अपवादरूप से भी अवकाश नहीं है। अतः इस मान्यता के अनुसार उसमें स्त्रीमुक्ति भी युक्तिमत् सिद्ध हो जाती है। किन्तु यापनीयमत में वस्त्रपरिग्रह को मुक्ति में बाधक नहीं माना गया है, इसलिए उसके अनुसार वस्त्रधारी साधु भी मुक्त हो सकते हैं, गृहस्थ भी, परतीर्थिक भी और स्त्री भी। इसके बावजूद उसमें नग्नत्व को स्वीकार किया गया है। यापनीय साधु नग्न रहने और अपने को पाणितलभोजी कहने में गौरव का अनुभव करते थे। अब यह बात समझ में नहीं आती कि जब वस्त्रपरिग्रह मोक्ष में बाधक नहीं है और कोई भी मनुष्य, चाहे वह स्वतीर्थिक हो या परतीर्थिक, स्त्री हो या पुरुष, वस्त्रधारण करते हुए भी मुक्त हो सकता है, तब नग्न रहने का क्या औचित्य है? इस प्रश्न का यापनीयग्रन्थों में कोई समाधान नहीं है और न इसका समाधान करनेवाली कोई युक्ति दृष्टिगोचर होती है। अतः यह अत्यन्त अयुक्तियुक्त सिद्धान्त है। एक ओर नग्नता को असंयम का कारण तथा वस्त्रपरिग्रह को संयम का उपकरण माननेवाले श्वेताम्बरों को यापनीयों का नाग्न्य-सिद्धान्त उचित प्रतीत नहीं हो सकता था, दूसरी ओर एकमात्र नाग्न्य को ही मोक्ष का मार्ग माननेवाले दिगम्बरों को आपवादिक या वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति तथा परतीर्थिकमुक्ति मान्य नहीं हो सकती थी। यह मोटी बात यापनीयों की बुद्धि में न उतरी होगी, इतना तो मूढ़ उन्हें नहीं माना जा सकता। अतः यापनीयों को स्वयं यह भ्रम नहीं रहा होगा कि उनकी मान्यताओं के प्रति दिगम्बरों और श्वेताम्बरों दोनों में आस्था पैदा हो जायेगी और वे यापनीयमत अंगीकार कर लेंगे। अतः यह मानना कि यह मत दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में मेल कराने के लिये उत्पन्न हुआ था, बहुत बड़ा धोखा खाना है और दूसरों को धोखे में डालना है। ६.३. लोकमान्यता-राजमान्यता की प्राप्ति __ अब यह जिज्ञासा और बलवती हो जाती है कि जो श्वेताम्बरसाधु जम्बूस्वामी के बाद से ही एकमात्र सचेलता को मोक्ष का मार्ग मानते आ रहे हों और उस पर अनन्य आस्था से चल रहे हों तथा उस पर चलते हुए जिन्हें मोक्षप्राप्ति में कोई सन्देह ५. “अथ यदा शिवभूतिना नग्नभावोऽभ्युपगतस्तदानीमुत्तरानाम्न्याः स्वभगिन्या वस्त्रपरिधानमनु ज्ञातम्। एवं च सति यदि स्त्रीणां मुक्तिं प्ररूपयति तदा सवस्त्र-निर्वस्त्रयोरविशेषापत्त्या स्वकीयनग्नभावस्य केवलं क्लेशतैवापद्यतेति विचिन्त्य स्त्रीणां मुक्तिर्निषिद्धा।" प्रवचनपरीक्षा। वृत्ति १/२/१८ / पृ. ८२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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