SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०७/प्र०१ यापनीयसंघ का इतिहास / ४९५ मेल कराना था, यह धारणा बुद्धिगम्य नहीं है। क्योंकि एकान्ततः अचेललिंग से मोक्ष की प्राप्ति माननेवाले निर्ग्रन्थसंघ में सचेललिंग से भी मोक्षप्राप्ति माननेवाली विचारधारा के जन्म ने ही निर्ग्रन्थसंघ का विभाजन किया था। तब निर्ग्रन्थसंघ में उसी विचारधारा के पुनः प्रवेश से सैद्धान्तिक समन्वय की कल्पना करना यापनीयसंघ के प्रवर्तकों को शिशुओं से भी अधिक भोला सिद्ध करना है। दिगम्बरवेश और श्वेताम्बर-सिद्धान्तों के संगम से उद्भूत 'यापनीय' नाम का यह वर्णसंकर दर्शन दिगम्बर-श्वेताम्बर-आगमविरुद्ध, दिगम्बर-श्वेताम्बर-श्रद्धाविरुद्ध, अन्तर्विरोधी और अतर्कसंगत था। इसकी सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति की मान्यताएँ दिगम्बरागमों और दिगम्बरों की श्रद्धा के प्रतिकूल थीं। तथा एकान्त-अचेलमुक्ति, एकान्त-पुरुषमुक्ति, पाणितलभोजित्व एवं मयूरपिच्छिग्रहण की मान्यताएँ श्वेताम्बरागमों एवं श्वेताम्बरों की श्रद्धा के विरुद्ध थीं। अचेलमुक्ति को मान्यता देकर चेल के परिग्रह होने एवं संयमविरोधी होने का तर्क भी स्वीकार कर लिया गया था और सचेलमुक्ति का निषेध न कर चेल के संयमोपकारी होने का तर्क भी उचित ठहरा दिया गया था। इस तरह यापनीयदर्शन अन्तर्विरोधों से भरा हुआ था। एक ओर सचेलमुक्ति मान लेने से दिगम्बरवेश केवल आत्मक्लेश और निर्लज्जता का कारण सिद्ध होकर रह जाता है, दूसरी ओर अचेलमुक्ति को भी स्वीकार कर लेने से वस्त्र के संयमोपकरण होने की श्वेताम्बरीय मान्यता धराशायी हो जाती है। इस प्रकार यापनीयमत अतर्कसंगत मान्यताओं का समुच्चय था। यह यापनीयों के लिए भले ही दुग्ध के समान गुणकारी रहा हो, किन्तु श्वेताम्बरों के लिए दुग्ध-विष का संगम था और दिगम्बरों के लिए विषमय कनकघट। __ यापनीयों को स्वयं यह भ्रम नहीं रहा होगा कि उनकी इन उभयागम-विरुद्ध उभयश्रद्धा-विरुद्ध, अन्तर्विरोधी एवं अतर्कसंगत, वर्णसंकर मान्यताओं से प्रभावित होकर दिगम्बर और श्वेताम्बर अपनी मान्यताएँ छोड़ देंगे और यापनीयमत स्वीकार कर लेंगे। ये मान्यताएँ इतनी अतर्कसंगत थीं कि इनके वाहक यापनीय-सम्प्रदाय की अकालमृत्यु हो गयी और केवल निरपवाद-अचेलमार्गी मूल-दिगम्बरपरम्परा तथा निरपवादसचेलमार्गी श्वेताम्बरपरम्परा जीवित रह सकीं। इसका कारण यह है कि ये दोनों परम्पराएँ अपने-अपने सिद्धान्तों की दृष्टि से तर्कसंगत प्रतीत होती हैं। दिगम्बरपरम्परा में वस्त्रपरिग्रह को निरपवादरूप से मोक्ष में बाधक माना गया है, इसलिए इसमें किसी भी वस्त्रधारी को चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, मोक्ष के लिए स्थान नहीं है। यह सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy