SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ है, फिर भी नग्न रहते थे। विचारणीय है कि ऐसा करने का क्या प्रयोजन था? उस प्रयोजन के अन्वेषण से यापनीयों के मूल का निर्णय हो सकता है। ६.१. श्वेताम्बर-दिगम्बरों में सैद्धान्तिक मेल कराना कुछ विद्वानों का कथन है कि इसका प्रयोजन श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में सैद्धान्तिक मेल कराना था। श्वेताम्बर मुनि आचार्य श्री हस्तीमल जी लिखते हैं "तीर्थप्रवर्तनकाल से लेकर आचार्य हरिभद्रसूरि के समय तक निर्ग्रन्थ (विषयकषायों की ग्रन्थियों से विहीन) श्वेताम्बर, एक वस्त्र से लेकर तीन वस्त्र तक धारण करनेवाले, केवल अग्रहार धारण करनेवाले, केवल कटिपट्ट धारण करनेवाले और दिगम्बर (निर्वस्त्र) मुनि भी भगवान् महावीर के श्रमणसंघ में विद्यमान थे। "इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अप्रतिहत विहार करते समय अग्रहार अथवा कटिपट्ट धारण करनेवाले मुनि, संघभेद के समय अर्थात् वीर नि० सं० ६०९ में भी विद्यमान थे और उन्होंने भगवान् महावीर के संघ को छिन्न-भिन्न न होने, छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटकर विघटित न होने देने के सदुद्देश्य से ही श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच समन्वय बनाये रखने हेतु, इन दोनों सम्प्रदायों के बीच का मध्यमार्ग अपनाया और उनका संघ यापनीयसंघ अथवा आपुलीयसंघ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ।" (जै.ध.मौ.इ. / भा. ३ / पृ. २१०-२११)। ___डॉ० सागरमल जी भी लिखते हैं-"भगवान् महावीर की परम्परा का सही रूप में प्रतिनिधित्व करनेवाला तथा वर्तमान श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं के मध्य योजक कड़ी के रूप में विकसित यह (यापनीय) सम्प्रदाय मेरी अध्ययनरुचि का विषय तो था ही ---।" (लेखकीय / पृ.V / जै.ध.या.स.)। इस प्रकार इन महानुभावों का मत है कि केवल अग्रहार (अग्रवस्त्र) या कटिपट्टधारी श्वेताम्बर मुनियों ने श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में एकता स्थापित करने के प्रयोजन से अपने श्वेताम्बरीय सिद्धान्तों को न छोड़ते हुए दिगम्बरवेश अपना लिया था। ये ही लोग यापनीय कहलाये। आचार्य हस्तीमल जी के उपर्युक्त वचनों से उनके पूर्ववचन बाधित हो जाते हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि यापनीयों के गण-गच्छादि दिगम्बरों के गण-गच्छादि से समानता रखते हैं, इसलिए यापनीयों की उत्पत्ति दिगम्बरों से हुई थी। ६.२. सैद्धान्तिक मेल की कल्पना अयुक्तिसंगत किन्तु श्वेताम्बर (अग्रहार या कटिपट्टधारी) साधुओं के द्वारा श्वेताम्बर-सिद्धान्त न छोड़ते हुए दिगम्बरवेश अपनाये जाने का प्रयोजन श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में सैद्धान्तिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy