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अ० ७ / प्र० १
यापनीयसंघ का इतिहास / ४९३ दिगम्बरसंघ से हुई थी । समानता को देखा जाय तो यापनीयसंघ की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समानता दिगम्बरसंघ की अपेक्षा श्वेताम्बरसंघ से अधिक है। जैसे छह द्रव्य, सात तत्त्व, अष्टकर्म, सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग, वीतराग देवशास्त्र - गुरु एवं अहिंसादि सिद्धान्तों की अधिक समानता के कारण श्वेताम्बरजैन-सम्प्रदाय की उत्पत्ति निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन) सम्प्रदाय से ही सिद्ध होती है, बौद्धसम्प्रदाय से नहीं, जैसे सिद्धान्त और व्यवहार की अधिक समानता के कारण स्थानकवासी - श्वेताम्बर सम्प्रदाय का उद्भव मूर्तिपूजक श्वेताम्बरसम्प्रदाय से ही सिद्ध होता है, दिगम्बर जैन - सम्प्रदाय से नहीं, वैसे ही सवस्त्रमुक्ति (यापनीयमत में वैकल्पिकरूप से), स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सिद्धान्तों एवं 'धर्मलाभ' कहकर आशीर्वाद देने आदि-रूप व्यवहार की अत्यन्त समानता के कारण यापनीयसम्प्रदाय का जन्म श्वेताम्बरसम्प्रदाय से ही सिद्ध होता है, दिगम्बरसम्प्रदाय से नहीं । आचार्य हस्तीमल जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि " यापनीयपरम्परा की मान्यताएँ अधिकांश में श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यताओं से मिलती जुलती हैं ।" (देखिये, प्रस्तुत अध्याय / प्रकरण १/ शीर्षक १ / अनुच्छेद २ ) ।
नाम और वेश का अनुकरण तो उनसे भी किया जा सकता है, जिनसे कोई वंशगत सम्बन्ध न हो, किन्तु समान भाषा, मान्यताएँ और प्रथाएँ विरासत में उन्हीं से मिलती है, जिनके साथ वंशगत सम्बन्ध होता है।
यह मनोविज्ञान का नियम है कि जब आकृतियाँ और वेश समान हों, तब भाषा और संस्कारों से ही मनुष्य के मूल का निर्णय होता है । यापनीयों की श्वेताम्बरीय मान्यताओं से उनके श्वेताम्बरीय संस्कारों का बोध होता है । और उनके द्वारा आशीर्वाद में बोला जानेवाला 'धर्मलाभ' वचन तथा अपनी पहचान के लिए प्रयुक्त 'यापनीय' नाम श्वेताम्बरों की आगम-भाषा के शब्द हैं । अतः यापनीयों में श्वेताम्बरीय संस्कार और श्वेताम्बरों की भाषा पाये जाने से सिद्ध है कि श्वेताम्बरसंघ ही उनका मूल था । यदि दिगम्बरसंघ उनका मूल होता, तो यापनीय हो जाने पर भी उनके मुँह से आशीर्वाद के रूप में धर्मवृद्धि वचन ही निकलता, धर्मलाभ नहीं। 'यापनीय' शब्द बौद्धसाहित्य और श्वेताम्बरसाहित्य में ही मिलता है, दिगम्बरसाहित्य में नहीं, इस पर विशेष प्रकाश आगे डाला जायेगा ।
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सिद्धान्तविपरीत वेशग्रहण का प्रयोजन
यापनीयसंघ एक ऐसा संघ था, जिसके साधु अपने सिद्धान्तों के विपरीत लिंग (वेश) धारण करते थे । वे मानते थे कि मुक्ति के लिए नग्न रहना आवश्यक नहीं
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