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________________ ४९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ डॉक्टर सा० की यह आपत्ति न्याय्य नहीं है। द्वितीय अध्याय (प्रकरण ३ एवं ४) में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि उत्तरभारत में तो क्या, सम्पूर्ण भारत में यापनीयसंघ की उत्पत्ति के पूर्व कोई सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा विद्यमान नहीं थी। उसके पूर्व जैनपरम्परा में दो ही संघ थे : एकान्त-अचेलमार्गी-निग्रंथ-(दिगम्बर)-संघ तथा एकान्तसचेलमार्गी-श्वेतपट-श्रमण-संघ। इस एकान्त-सचेलमार्गी-श्वेतपट-श्रमण-संघ के ही कुछ साधुओं ने यापनीयसंघ की नींव डाली थी। अतः डॉ० सागरमल जी की आपत्ति उचित नहीं है। जिस सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, उससे श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति मानना आकाशकुसुम से सुगंध की उत्पत्ति मानना है। अतः हरिषेण, देवसेनसूरि तथा रत्ननन्दी इन तीनों का यह कथन अप्रामाणिक नहीं है कि यापनीयसंघ का जन्म श्वेताम्बरसंघ से हुआ था। दिगम्बरसंघ से यापनीयसंघ की उत्पत्ति नहीं आचार्य हस्तीमल जी यापनीयसंघ की उत्पत्ति दिगम्बरपरम्परा से मानते हुए लिखते हैं-"दर्शनसार की उपरिलिखित ('कल्लाणं वरणयरे') गाथा में यापनीयपरम्परा की उत्पत्ति श्वेताम्बरसंघ से बताई गई है, किन्तु यापनीयसंघ के जितने भी गणों, गच्छों अथवा संघों के नाम जो आज तक प्राचीन अभिलेखों (शिलालेखों, ताम्रपत्रों) आदि में उपलब्ध हुए हैं, वे सब के सब दिगम्बरपरम्परा के संघों, गणों, गच्छों एवं अन्वयों के समान नामवाले हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बरपरम्परा के किसी भी गण अथवा गच्छ के समान नामवाला यापनीयपरम्परा का एक भी गण अथवा गच्छ आज तक उपलब्ध हुई पुरातत्त्व सामग्री में प्राप्त नहीं हुआ है। --- मूलसंघ, श्रीमूल-मूल-संघ, कनकोत्पलसंभूतसंघ, पुन्नागवृक्षमूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, कण्डूर्गण, क्राणूगण आदि संघों, गणों और अन्वयों के नाम इन दोनों (यापनीय और दिगम्बर) परम्पराओं में समानरूप से उपलब्ध होते हैं"। (जै. ध. मौ. इ. / भा.३ / पृ.२०३-२०४)। आचार्य हस्तीमल जी के मत की असमीचीनता _ आचार्य हस्तीमल जी का उपर्युक्त कथन समीचीन नहीं है। उनके द्वारा उल्लिखित संघों और गणों में से केवल पुन्नागवृक्षमूलगण, जिसे उन्होंने 'गण' न कहकर 'संघ' कहा है, दिगम्बर और यापनीय संघों में समान था, शेष नहीं। शेष में से श्रीमूलमूलसंघ, कनकोत्पलसंभूत-संघ और कण्डूगण केवल यापनीयसंघ में थे और मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय एवं क्राणूगण केवल दिगम्बरसंघ में। अतः मात्र एक 'पुन्नागवृक्षमूलगण' नाम की समानता इस निर्णय का युक्तियुक्त हेतु नहीं है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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