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________________ अ०७/प्र०१ यापनीयसंघ का इतिहास / ४९१ व्याघुट्य भूपतिस्तस्मादागत्य निजमन्दिरम्। भाषते स्म महादेवी गुरवस्ते कुमार्गगाः॥४/१४६॥ जिनोदितबहिर्भूत-दर्शनाश्रितवृत्तयः। परिग्रहग्रहग्रस्तान्नैतान्मन्यामहे वयम्॥ ४/१४७॥ सा तु मनोगतं राज्ञो ज्ञात्वाऽगाद्गुरुसन्निधिम्। नत्वा विज्ञापयामास विनयानतमस्तका॥४/१४८॥ भगवन्मदाग्रहादग्रयां गृहीतामरपूजिताम्। निर्ग्रन्थपदवीं पूतां हित्वा सङ्गं मुदाखिलम्॥४/१४९॥ उररीकृत्य ते राज्या वचनं विदुषार्चितम्। तत्यजुः सकलं सङ्गं वसनादिकमञ्जसा॥४/१५०॥ करे कमण्डलुं कृत्वा पिच्छिकां च जिनोदिताम्। जग्रहुर्जिनमुद्रां ते धवलांशुकधारिणः॥ ४ /१५१॥ विशांपतिस्ततो गत्वाऽभिमुखं भूरिसम्भ्रमात्। नत्वातिभक्तितः साधूनमध्येपत्तनमानयत्॥४/१५२॥ तदातिवेलं भूपाद्यैः पूजिता मानिताश्च तैः। धृतं दिग्वाससां रूपमाचारः सितवाससाम्॥४/१५३॥ गुरुशिक्षातिगं लिङ्गं नटवद्भण्डिमास्पदम्। ततो यापनसङ्घोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्॥४/१५४॥ इस कथा में भी श्वेताम्बरसंघ से ही यापनीयसंघ की उत्पत्ति बतलायी गई है। उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा काल्पनिक डॉ० सागरमल जी इस मत पर आपत्ति उठाते हुए कहते हैं-"रत्ननन्दी का यह मत पूर्णतः प्रामाणिक नहीं है। यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर-परम्परा से न होकर उस मूलधारा से हुई है, जो श्वेताम्बर-परम्परा की भी पूर्वज थी, जिससे कालक्रम से वर्तमान श्वेताम्बरधारा का विकास हुआ है। वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्रपात्रादि में वृद्धि होने लगी और अचेलकत्व की प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, तब उससे अचेलता के पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धाराएँ निकलीं। पुनः यापनीय-सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तरभारत में हुआ।"(जै. ध. या. स./पृ.२३-२४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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