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________________ ४९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०१ उन्हें भक्तिपूर्वक यहाँ बुलवायें। राजा ने बुद्धिसागर नाम के मंत्री को गुरुओं के पास भेजा। वह विनयपूर्वक उन्हें करहाटक ले आया। राजा ठाठ-बाट से अगवानी के लिए गया। पर उसने दूर से देखा कि ये तो दिगम्बर साधु नहीं हैं। ये तो सवस्त्र हैं और इनके हाथ में भिक्षापात्र और लाठी है। ये कौन से साधु हैं? निर्ग्रन्थतारहित यह कौन सा मत है? राजा ने उनके पास जाना उचित नहीं समझा। वह घर लौट आया और रानी से बोला-"जिनमत के विरुद्ध चलनेवाले, परिग्रहपिशाच के वशीभूत ये ही तुम्हारे गुरु हैं? मैं इन्हें नहीं मानूँगा।" रानी राजा का आशय समझ गई। वह तुरन्त गुरुओं के पास गई और प्रार्थना की, कि वे वस्त्रादि का त्याग कर निर्ग्रन्थ वेश धारण कर लें। साधुओं ने रानी का अनुरोध स्वीकार कर तुरन्त वस्त्रादि का त्याग कर दिया और पीछी-कमण्डलु लेकर दिगम्बरमुद्रा में राज्य में प्रवेश किया। तब राजा भूपाल ने जाकर बड़े ठाठ-बाट से उनकी अगवानी की और उन्हें नगर में ले आया। "इस तरह राजा आदि के द्वारा पूजित और सम्मानित होने पर उन्होंने रूप तो दिगम्बर साधुओं का धारण कर लिया, किन्तु उनका श्रद्धान और आचरण श्वेताम्बर साधुओं के ही समान बना रहा। गुरुदीक्षा के बिना उन्होंने जो दिगम्बरलिंग धारण किया था, वह नट के रूप के समान उपहासास्पद बन गया। (भद्रबाहुचरित ४/१३७१५३)। आगे चलकर इन्हीं साधुओं से यापनीयसंघ का प्रादुर्भाव हुआ। भद्रबाहुचरित से कथा का प्रासंगिक संस्कृत मूल नीचे दिया जा रहा है अन्यदावसरं प्राप्य राझ्या विज्ञापितो नृपः। स्वामिन्मद्गुरवः सन्ति गुरवोऽस्मत्पितुः पुरे॥४/१४०॥ आनाययत तान्भक्त्या धर्मकर्माभिवृद्धये। निशम्य तद्वचो भूभृदाहूयामात्यमञ्जसा॥४/१४१॥ बुद्धिसागरनामानमप्रैषील्लातुमादरात्। आसाद्यासौ गुरून् भक्त्या प्रवरप्रश्रयान्वितः॥४/१४२॥ भूयोऽभ्यर्थनयामात्यः पत्तनं निजमानयत्। निशम्यागमनं तेषां मुदमाप परं नृपः॥४/१४३॥ महताडम्बरेणासावचालीद्वन्दितुं गुरून्। दूरादालोक्य तान्साधून्दध्यादिति सुविस्मयात्॥४/१४४॥ अहो निर्ग्रन्थताशून्यं किमिदं नौतनं मतम्। न मेऽत्र युज्यते गन्तुं पात्रदण्डादिमण्डितम्॥४/१४५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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