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अ०६/प्र०३
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४८१ अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला, यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्यतः आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये।"(जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा / पृ.३१)।
निर्णीतार्थ प्रस्तुत अध्याय में उपस्थित किये गये उपर्युक्त प्रमाणों से निम्नलिखित बातें सिद्ध होती हैं
१. जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद भगवान् महावीर के अनुयायी एकान्तअचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थसंघ या अचेलसंघ से 'श्वेतपट' नामक सग्रन्थसंघ या सचेलसंघ का उद्भव हुआ था। उसके श्वेतपट, श्वेतवस्त्र, सिताम्बर या श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध होने के कारण निर्ग्रन्थसंघ भी आगे चलकर 'दिगम्बरसंघ' के नाम से व्यपदिष्ट होने लगा। इससे सिद्ध है कि दिगम्बरसंघ निर्ग्रन्थसंघ के नाम से जम्बूस्वामी के पूर्व विद्यमान था। अतः बोटिक शिवभूति से वीर नि० सं० ६०९ में अथवा आचार्य कुन्दकुन्द से विक्रम की छठी शती (पाँचवीं शती ई०) में दिगम्बरसम्प्रदाय की उत्पत्ति बतलाना सत्य का घोर अपलाप है।
२. अचेलक धर्म के अनुयायी अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु बारह हजार शिष्यों के साथ उत्तरभारत से दक्षिणभारत गये थे, इससे सूचित होता है कि वहाँ दिगम्बरजैनमत के अनुयायी पहले से ही विद्यमान थे, अन्यथा बारह हजार दिगम्बरमुनियों की आहारचर्या वहाँ संभव नहीं थी। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरपरम्परा अतिप्राचीन है।
३. जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर निर्ग्रन्थसंघ के भेद (विभाजन) से श्वेताम्बरसम्प्रदाय का जन्म हुआ था। तत्पश्चात् श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में पुनः उसके (निर्ग्रन्थसंघ के) ही भेद से अर्धफालकसंघ की उत्पत्ति हुई। इनके अतिरिक्त निर्ग्रन्थसंघ के भेद से अन्य किसी भी सवस्त्रमुक्ति एवं स्त्रीमुक्ति के समर्थक संघ की उत्पत्ति का उल्लेख साहित्य या शिलालेखों में उपलब्ध नहीं है। सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति के विरोधी दिगम्बरसंघ की उत्पत्ति निर्ग्रन्थसंघ के भेद से नहीं हुई थी, क्योंकि वह तो निर्ग्रन्थसंघ का ही नामान्तर है, जो भगवान् महावीर के समय से चला आ रहा है। यापनीयसंघ की उत्पत्ति श्वेताम्बरसंघ के भेद से हुई थी, इसका उल्लेख हरिषेण के 'बृहत्कथाकोश' एवं रत्ननन्दीकृत 'भद्रबाहुचरित' में मिलता है। स्वयं डॉ० सागरमल जी ने उसे उत्तरभारत के निर्ग्रन्थसंघ से विभक्त हुआ मानकर यह मान लिया है कि
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