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तृतीय प्रकरण
श्वेताम्बरसाहित्य का विकास डॉ० सागरमल जी ने अपने नवीन ग्रन्थ 'जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा' में श्वेताम्बरसाहित्य के विकास पर भी प्रकाश डाला है, जिससे ज्ञात होता है कि श्वेताम्बरमान्य आचारांग आदि सभी आगम ईसापूर्व की रचनाएँ नहीं हैं, समवायांग जैसे आगमग्रन्थ तो ईसा की पाँचवीं शती में रचे गये हैं। इनकी रचना के कालक्रम का ज्ञान डॉक्टर सा० की अनेक कपोलकल्पित मान्यताओं के निरसन में उपयोगी है, अतः श्वेताम्बरसाहित्य के विकास पर प्रकाश डालनेवाले उनके वचन नीचे उद्धृत किये जा रहे हैं। वे लिखते हैं
"महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवीं शती · तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगमसाहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित हैं। इस अवधि में सर्वप्रथम ई० पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवतः इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पार्खापत्यपरम्परा के पूर्वसाहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्वसाहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पापित्य-परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवीं शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम हैं। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ 'आचारांग' एवं 'सूत्रकृतांग' के प्रथम श्रुतस्कध, ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई० पू० के ग्रन्थ हैं, वहीं 'समवायांग', वर्तमान 'प्रश्नव्याकरण' आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई० स० की पांचवीं शती के हैं। 'स्थानांग', 'अंतकृद्दशा', 'ज्ञाताधर्मकथा' और 'भगवती' का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई० पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांगसाहित्य में अपेक्षाकृत रूप में 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'राजप्रश्नीय', 'प्रज्ञापना' प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा भी छेद-सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगमसाहित्य को
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