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________________ ग्रन्थसार [इकसठ] ख-पञ्चमकाल में भगवान् महावीर का ही तीर्थ चल रहा है। उन्होंने अचेलतीर्थ का प्रवर्तन किया था। इससे सिद्ध है कि पंचमकालीन सामान्य पुरुष अचेललिंग ग्रहण के अधिकारी हैं। ग-जिनभद्रगणी जी ने विशेषावश्यकभाष्य (गा.२५९३) में जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् (अर्थात् पंचमकाल में) उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी का व्युच्छेद बतलाया है, इनके पूर्व के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों का नहीं। अर्थात् उनके अनुसार अन्तिम तीन हीन संहननवाले पुरुष अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान-प्राप्ति के योग्य होते हैं। (श्री सिद्धसेनगणी और श्री हरिभद्रसूरि ने चौथे अर्धनाराचसंहनन को भी उत्तमसंहनन बतलाया है। देखिये, तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति/९/२७ तथा तत्त्वार्थटीका/९/२७)। तत्त्वार्थसूत्रकार ने बादरसाम्पराये सर्वे (त. सू.-दि. एवं श्वे./९ / १२) सूत्र के द्वारा नौवें गुणस्थान तक नाग्न्यपरीषह का सद्भाव बतलाया है। इससे सिद्ध है कि नाग्न्यलिंग के अंगीकार की योग्यता पंचमकाल में अर्धनाराच आदि हीनसंहननधारियों में भी होती है। घ-कर्मसिद्धान्त एक विज्ञान है। वह भौतिक नियमों की तरह नियमों का उल्लघंन नहीं करता, स्वार्थप्रेरित चेतन-प्राणी के समान पक्षपात नहीं करता। ऐसा नहीं हो सकता कि तीर्थंकरों में वस्त्रपात्रादि-परिग्रहगत रागद्वेष न होने पर ही संवर और निर्जरा होती हो तथा सामान्य पुरुषों में वस्त्रपात्रादि-परिग्रहगत रागद्वेष होने पर भी संवर-निर्जरा संभव हो। यदि रागादिभावों में चुम्बक और लोहे के समान कर्मों के आकर्षण की शक्ति है, तो रागादिभाव चाहे (उसी भव में होनेवाले) तीर्थंकर में रहें या सामान्य पुरुष में, कर्मों का आकृष्ट होना अनिवार्य है। तथा वीतरागभाव के सद्भाव में यदि कर्मों के संवर और निर्जरा का नियम है, तो वीतरागभाव का सद्भाव चाहे तीर्थंकर में रहे या सामान्यपुरुष में, कर्मों का संवर और निर्जरा हुए बिना नहीं रह सकती। यदि ऐसा न हो, तो 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' (त. सू./८/१) और 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (त.सू./१/१) ये तीर्थंकरवचन झूठे हो जायेंगे। कर्मों के आस्रव-बन्ध और संवर-निर्जरा-मोक्ष का सम्बन्ध आत्मपरिणामों से है। और आत्मपरिणामों का सम्बन्ध बाह्य परिग्रह के ग्रहण और त्याग से है। ऐसा नहीं हो सकता कि तीर्थंकरों में कर्मों के संवर-निर्जरा-मोक्ष-योग्य परिणामों की उत्पत्ति वस्त्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही होती हो और सामान्य पुरुषों में वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त रहने पर भी संभव हो। यह संभव नहीं है, इसलिए सिद्ध है कि जैसे कर्मक्षय के लिए नाग्न्यलिंग का ग्रहण तीर्थंकरों के लिए आवश्यक है, वैसे ही सामान्य पुरुषों के लिए भी है। अतः जिनभद्रगणी जी ने जो सामान्य पुरुषों के लिए तीर्थंकरलिंग (नाग्न्यलिंग) का निषेध बतलाया है, वह स्वकल्पित है, आगमोक्त नहीं। वस्तुतः तीर्थंकरलिंग मुनिलिंग ही है। (अध्याय २/ प्र.५/शी.३)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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