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________________ [साठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ इस कारण उसके श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में विभाजित होने की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। वह विभाजित भी नहीं हुआ और मौजूद भी नहीं है, यह उसके काल्पनिक होने का प्रमाण है। ङ-जब किसी पूर्व संघ से नया संघ जन्म लेता है, तब नये संघ का ही नया नामकरण होता है, पूर्वसंघ अपने पूर्वनाम से ही नये संघ के साथ विद्यमान रहता है। जैसे निर्ग्रन्थसंघ से श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति हुई, तो श्वेताम्बरसंघ का ही 'श्वेताम्बरसंघ' यह नया नाम रखा गया, निर्ग्रन्थसंघ अपने 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम से ही श्वेताम्बरसंघ के साथ विद्यमान रहा, जैसा कि श्री विजयशिवमृगेशवर्मा के देवगिरि अभिलेख से ज्ञात होता है। अतः यदि उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ से श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति हुयी होती, तो वह उसी नाम से इन नये संघों के साथ विद्यमान दिखायी देता। किन्तु किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में इन नये संघों के साथ उसका नाम दिखाई नहीं देता। इससे सिद्ध होता है, कि वह कपोलकल्पित है। ४. 'जो पुरुष उसी भव में तीर्थंकर होनेवाला है, उसे छोड़कर शेष पुरुष तीर्थंकरलिंग (नाग्न्यलिंग) ग्रहण करने के अधिकारी नहीं हैं, जिनभद्रगणी जी ने विशेषावश्यकभाष्य में इसे जिनवचन बतलाया है। इसे जिनवचन कहकर उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दिगम्बरमत में मुनि के लिए तीर्थंकरलिंग का विधान किया गया है, अतः वह निह्नवमत है। (अध्याय २/प्र.५/शी.१,२)। किन्तु यह वचन जिनवचन के प्रतिकूल है। इसके प्रमाण नीचे द्रष्टव्य हैं क-उत्तराध्ययनसूत्र (२३/१९) और श्री हरिभद्रसूरिकृत पञ्चाशक (श्लोक १२) में कहा गया है कि भगवान् पार्श्वनाथ ने सचेलाचेल धर्म का उपदेश दिया था और भगवान् महावीर ने अचेलक धर्म का। ये उपदेश सामान्य (उसी भव से तीर्थंकर न होनेवाले) पुरुषों के लिए ही दिये गये हैं, क्योंकि उसी भव से तीर्थंकर होनेवालों के लिए उपदेश नहीं दिया जाता, वे स्वयंबुद्ध होते हैं। यह बात विशेषावश्यकभाष्य (गा. २५८८-८९) के वृत्तिकार मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरि ने स्वयं कही है। (अध्याय २/प्र.५ / शी.१)। तथा भगवान् पार्श्वनाथ का सचेलाचेललिंग का उपदेश तीर्थंकरों के लिए हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिनभद्रगणी जी ने स्वयं तीर्थंकरों का लिंग अचेललिंग बतलाया है, और उसी का सामान्य पुरुषों के लिए निषेध किया है। अतः जिसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथ का सचेलाचेललिंग का उपदेश सामान्य पुरुषों के लिए ही है, वैसे ही भगवान् महावीर का अचेललिंग का उपदेश भी सामान्य पुरुषों के लिए ही है। यह प्रमाण श्री जिनभद्रगणी जी के इस कथन को कपोलकल्पित सिद्ध कर देता है कि जिनेन्द्रदेव ने सामान्य पुरुषों के लिए तीर्थंकर लिंग का निषेध किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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