________________
ग्रन्थसार
[उनसठ] कपोलकल्पित है, अतः उपर्युक्त १८ दिगम्बरग्रन्थों में से दो ग्रन्थों को डॉ० सागरमल जी ने जो श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा अर्थात् उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्यों द्वारा रचित बतलाया है, वह अप्रामाणिक है, बन्ध्यापुत्र और आकाशकुसुम के समान कपोलकल्पित है।
ऐतिहासिक प्रमाणों से भी उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का अस्तित्व मिथ्या सिद्ध होता है। यथा
क-पाँचवीं शती ई० के देवगिरि एवं हल्सी के अभिलेखों में श्वेतपटमहाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ, यापनीयसंघ एवं कूर्चकसंघ का उल्लेख है, किन्तु पाँचवीं शती ई० या उससे पूर्व के किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में 'उत्तरभारतीय-निर्ग्रन्थसंघ' या 'उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ' का उल्लेख नहीं है।
ख-उपर्युक्त अभिलेखों में निर्ग्रन्थ शब्द श्वेताम्बरों, यापनीयों और कूर्चकों के प्रतिपक्षी दिगम्बरों के लिए प्रयुक्त है। इससे सिद्ध होता है कि परम्परा से दिगम्बरजैन मुनि ही लोक में निर्ग्रन्थ शब्द से अभिहित होते थे। इसलिए दिगम्बरजैन मुनियों से भिन्न सचेलाचेल-सम्प्रदाय के मुनियों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग हो ही नहीं सकता था, क्योंकि इससे साम्प्रदायिक भिन्नता की पहचान असंभव हो जाती। यापनीयसम्प्रदाय के साधु भी अचेल और सचेल दोनों लिंग धारण करते थे, किन्तु उन्होंने उपर्युक्त कारण से अपने सम्प्रदाय को 'निर्ग्रन्थ' शब्द से प्रसिद्ध नहीं किया। कथित सचेलाचेल-सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' नाम से प्रसिद्ध था, इसका कोई अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। इससे भी उक्त सम्प्रदाय का अस्तित्व प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता।
ग-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि उक्त सचेलाचेल-सम्प्रदाय पाँचवी शताब्दी ई० के आरम्भ में श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था। किन्तु अशोककालीन अथवा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी ई० के बौद्ध ग्रन्थ अपदान में सेतवत्थ नाम से श्वेताम्बर साधओं का उल्लेख है, जो इस बात का प्रमाण है कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसापूर्वकाल में ही हो गयी थी। इससे यह बात मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ पाँचवीं शताब्दी ई० के आरंभ में श्वेताम्बर
और यापनीय संघों में विभक्त हो गया था। विभक्त भी नहीं हुआ और विद्यमान भी नहीं है, यह इस बात का सबूत है कि उसका अस्तित्व ही नहीं था।
घ-कथित सचेलाचेल-सम्प्रदाय में साधु को सचेल और अचेल दो लिंगों में से किसी को भी ग्रहण करने की स्वंतत्रता थी। इसलिए वह श्वेताम्बरों के भी अनुकूल था और यापनीयों के भी। अतः उसमें विभाजित होने योग्य परस्थितियाँ ही नहीं थीं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org