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[अट्ठावन]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ क-उत्तराध्ययनसूत्र (२३ / २९) एवं हरिभद्रसूरिकृत पञ्चाशक (श्लोक १२) में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने अचेलक धर्म का ही उपदेश दिया था, सचेलअचेल का नहीं। कल्पनियुक्ति में साधुओं के दस स्थितिकल्पों (अनिवार्य आचारों) में आचेलक्य (नग्नत्व) पहला स्थितिकल्प बतलाया गया है। तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी साधु के बाईस परीषहों में नाग्न्यपरीषह निर्दिष्ट है, जो साधु के लिए अचेललिंग धारण करने के उपदेश का सूचक है। इन प्रमाणों से निश्चित होता है कि भगवान् महावीर का अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ सर्वथा अचेल था, सचेलाचेल नहीं। (अध्याय २/ प्र.३ / शी.३)।
ख-श्वेताम्बरग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में साधुओं के लिए दो प्रकार के आचारों का वर्णन है : जिनकल्प और स्थविरकल्प। इनमें जिनकल्प को अचेल और स्थविरकल्प को सचेल कहा गया है, किन्तु यह सत्य नहीं है। जिनकल्प भी सचेल ही था, जैसा कि प्रवचनपरीक्षा में कहा गया है
___"--- एवमुक्तप्रकारेण जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्चेत्युभयेऽपि प्रागुक्तगुणहेतवे वस्त्रणि विभ्रति। अन्यथा प्रवचनखिंसादयः स्त्रीजनस्यात्मनश्च मोहोदयादयो बहवो दोषाः स्युः।" (प्रव. परी./वृत्ति/१/२/३१ / पृ.९५)।
अनुवाद-"---इस प्रकार जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक, दोनों पूर्वोक्त गुणों (लोकमर्यादा का पालन, लज्जा तथा ब्रह्मचर्य की रक्षा, शीतातपदंशमशकजन्य पीड़ाओं के निरोध द्वारा सद्ध्यान की प्राप्ति, जैनसंघ की निन्दा का परिहार, स्त्रियों में कामविकारोत्पत्ति का निवारण एवं जीवहिंसा की निवृत्ति) की सिद्धि के लिए वस्त्र धारण करते हैं। अन्यथा जैनसंघ की निन्दा, स्त्रियों तथा स्वयं में कामविकार की उत्पत्ति आदि अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं।" (अध्याय २/प्र.३/शी.३.३.१)।
विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता का कथन है कि इस सचेल जिनकल्प का भी जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीरनिर्वाण सं०६२) के बाद व्युच्छेद हो गया। (अध्याय २/ प्र. ३ /शी. ३.५)। इस प्रकार श्वेताम्बरमत में आरम्भ से ही एकमात्र स्थविरकल्पिकों का अर्थात् सचेलसाधुसंघ का अस्तित्व रहा है और दिगम्बरमत में एकमात्र अचेल साधुसंघ का। यापनीयसंघ की उत्पत्ति (पाँचवीं शती ई०) के पूर्व तक कोई भी ऐसा जैनसंघ नहीं था, जिसमें सचेल और अचेल दोनों प्रकार के साधुओं का अस्तित्व हो। अतः डॉ० सागरमल जी का यह कथन सर्वथा कपोलकल्पित है कि उत्तरभारत का मूल निर्ग्रन्थसंघ सचेलाचेल था और वह ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ तक विद्यमान रहा तथा इसी समय उसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति हुई। तात्पर्य यह कि श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान मातृपरम्परा का अस्तित्व
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