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ग्रन्थसार
[सत्तावन]
ग्रन्थ या शिलालेख में यापनीयसंघ का नाम दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि निर्ग्रन्थ
और श्वेतवस्त्र (श्वेतपट) सम्प्रदायों के नाम उपलब्ध होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शती के प्रारंभ में हुई थी। (अध्याय ७ / प्र.१/ शी.१०)। डॉ० सागरमल जी भी यही मानते हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने तत्त्वार्थभाष्य को यापनीकृति माना है। इसका खण्डन करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं- "भाष्य तो यापनीयपरम्परा के पूर्व का है। भाष्य तीसरी-चौथी शती का है और यापनीयसम्प्रदाय चौथी-पाँचवीं शती के पश्चात् ही कभी अस्तित्व में आया है।" (जै. ध. या. स. / पृ. ३५७)। बोटिक शिवभूति के अस्तित्वकाल और यापनीयमत के उत्पत्तिकाल में यह ३०० वर्ष का अन्तराल सिद्ध करता है कि शिवभूति को यापनीयमत का प्रवर्तक बतलाना कपोलकल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
३. डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल उभयविध धर्म का उपदेश दिया था, अतः उनकी अनुगामिनी उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थपरम्परा सचेलाचेल थी। ईसा की पाँचवीं शताब्दी के आरंभ में उसके विभाजन से श्वेताम्बर
और यापनीय सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई। अतः उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा श्वेताम्बर और यापनीय संघों की मातृपरम्परा थी।" इस हेतु के द्वारा डॉक्टर सा ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पूर्वोक्त (अध्याय १ में वर्णित) १८ दिगम्बरजैन ग्रन्थों में से जो ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं शताब्दी में या उसके बाद रचा गया है, वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है और जिसकी रचना उसके पूर्व हुई है, वह उत्तरभारतीयसचेलाचेल निर्ग्रन्थ-परम्परा का है, दिगम्बरपरम्परा का कोई भी नहीं है। (अध्याय २/ प्र.३/शी.१,२)। इस आधार पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र को उत्तरभारतीय-सचेलाचेल निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ घोषित किया है और शेष को यापनीयग्रन्थ। पहले उन्होंने कसायपाहुड, उसके चूर्णिसूत्रों और षट्खण्डागम को भी उत्तरभारतीय-सचेलाचेल निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ बतलाया था, किन्तु बाद में उन्होंने इस कपोलकल्पना की सृष्टि की, कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त उपलब्ध नहीं होता, जब कि कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि में होता है, अतः गुणस्थानसिद्धान्त का क्रमशः विकास हुआ है। इस कारण कसायपाहुड आदि ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र (उनके अनुसार तीसरी-चौथी शती ई०) के बाद रचे गये हैं। इस कपोलकल्पना के आधार पर डॉ० सागरमल जी ने कसायपाहुड, उसके चूर्णिसूत्रों तथा षट्खण्डागम को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ मान लिया। (अध्याय १०/प्र.५/शी.१)। किन्तु उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का कभी अस्तित्व ही नहीं था, यह डॉ० सागरमल जी द्वारा कपोलकल्पित है। यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है
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