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[छप्पन]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ फलस्वरूप यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बरजैनमत को बोटिक शिवभूति द्वारा प्रवर्तित निह्नवमत बतलाया जाना एक महान् कपोलकल्पना है। (अध्याय २/प्र.२ / शी. ५,६ एवं १०.५)।
ख-श्वेताम्बरग्रन्थों से बोटिकों और यापनीयों में महान् भेद सिद्ध होता है। विशेषावश्यकभाष्य और उसकी मलधारी-हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति में बोटिकों को सिद्धान्तों (मत) की दृष्टि से भी भिन्न, वेश (लिंग) की दृष्टि से भी भिन्न और आचरण (चर्या) की दृष्टि से भी भिन्न कहकर सर्वविसंवादी (तीर्थंकरोपदेश से सर्वथा विपरीत मत रखनेवाला), मिथ्यादृष्टि कहा गया है-"भिन्नमयलिंगचरिया मिच्छद्दिट्ठि त्ति बोडियाऽभिमया।" (विशे. भा. /गा. २६२०)। "--- देशविसंवादिनः सप्त निवाः। - -- सर्वविसंवादिनः--- अष्टमान् बोटिक निह्ववान्---।" (हेम. वृत्ति / पातनिका । विशे.भा./गा.२५५०)। किन्तु यापनीय सर्वविसंवादी तो क्या देशविसंवादी भी नहीं थे, क्योंकि वे सभी श्वेताम्बर आगमों को प्रमाण मानते थे और निर्वस्त्रमुक्ति के साथ सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति अन्यतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि समस्त श्वेताम्बरीय सिद्धान्तों के अनुगामी थे। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि (८वीं शताब्दी ई०) के समय में यापनीय भी विद्यमान थे, अतः वे बोटिकों (दिगम्बरों) और यापनीयों दोनों से सुपरिचित थे। उन्होंने दोनों को एक नहीं माना, अपितु उनमें महान् भेद प्रतिपादित किया है। उन्होंने बोटिकों को सर्वविसंवादी निह्नव (मिथ्यादृष्टि) कहा है-"भणिताश्च देशविसंवादिनो निवाः. साम्प्रतमनेनैव प्रस्तावेन प्रभतविसंवादिनो बोटिका भण्यन्ते।" (हारिभद्रीयवृत्ति/ पातनिका/आवश्यकनियुक्ति/भा.१/आवश्यकमूलभाष्य / गा.१४५ / पृ.२१५)। किन्तु यापनीयमत को (हरिभद्रसूरि ने) प्रमाणरूप स्वीकार किया है। उन्होंने ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति के समर्थन में यापनीयतन्त्र नाम के यापनीयग्रन्थ से एक उद्धरण प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया है। यथा-"(स्त्रीमुक्ती यापनीयतन्त्रप्रमाणम्) यथोक्तं यापनीयतन्त्रे 'णो खलु इत्थी अजीवो---।" (पृ. ४०१-४०२)।
जिस यापनीयसम्प्रदाय के ग्रन्थ को हरिभद्रसूरि प्रमाण मानते हों, उसे वे प्रभूतविसंवादी कैसे कह सकते हैं? उसे तो वे देशविसंवादी भी नहीं कह सकते, अन्यथा उस सम्प्रदाय का ग्रन्थ उनके लिए प्रमाणभूत नहीं हो सकता। हरिभद्रसूरि के अनुसार तीर्थंकरप्रवचन से संवाद रखने के कारण ही उन्होंने यापनीयसम्प्रदाय के ग्रन्थ को प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया है। यह बोटिकमत के यापनीयमत न होने का अकाट्य प्रमाण है। इससे सिद्ध है कि मुनि कल्याणविजय जी आदि का बोटिक शिवभूति को यापनीयमत का प्रवर्तक कहना एक महान् कपोलकल्पना है। (अध्याय २)।
ग-यापनीयसंघ का प्राचीनतम उल्लेख पाँचवीं शती ई० (४७०-४९० ई०) के कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्मा के हल्सी-ताम्रपत्र-लेख में हुआ है। इससे पूर्व किसी भी
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