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ग्रन्थसार
[पचपन]
भगवान् महावीर' (ई० सन् १९४१) में यह कथा बुनी कि बोटिक शिवभूति ने दिगम्बरमत नहीं चलाया था, अपितु यापनीयमत चलाया था। दिगम्बरजैनमत की स्थापना दक्षिण भारत के आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शती में की थी। श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया एवं डॉ० सागरमल जी जैन ने इस मत का अनुसरण करते हुए इसे पुष्ट करने के लिए नये हेतुओं की कल्पना की है। इस कपोलकल्पना के द्वारा मुनि कल्याणविजय जी ने यह साबित करने की कोशिश की है कि दिगम्बरजैनमत बहुत पुराना नहीं है, बल्कि विक्रम की छठी शताब्दी में प्रचलित हुआ है। (अध्याय २/प्र.२/ शी.३)।
उपर्युक्त दोनों हेतुओं की कपोलकल्पितता निम्नलिखित प्रमाणों से स्पष्ट हो जाती है
क-बोटिकमतोत्पत्तिकथा से स्पष्ट है कि बोटिक शिवभूति ने कोई नया मत नहीं चलाया था, अपितु जिनेन्द्रप्रणीत मत को ही अंगीकार किया था। वह श्वेताम्बरसाधु बन गया था, किन्तु स्थविरकल्पी श्वेताम्बरसाधुओं का परिग्रही वेश उसे अच्छा नहीं लगा। इसीलिए जब उसके गुरु आर्यकृष्ण परिग्रहरहित अचेलक जिनकल्प का वर्णन करते हैं तब वह उनसे कहता है
"स एव जिनकल्पः किं न क्रियते?--- नन्वहमेव तं करोमि, परलोकार्थिना स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्तव्यः। किं पुनरनेन कषायभयमूर्छादिदोषनिधिना परिग्रहानर्थेन? अत एव श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तम्। अचेलकाश्च जिनेन्द्राः, अतोऽचेलतैव सुन्दरेति। --- गुरुणा --- प्रज्ञाप्यमानोऽपि--- न स्वाग्रहाद् निवृत्तौऽसौ, किन्तु चीवराणि परित्यज्य निर्गतः।" (हेमचन्द्रसूरि-वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५५१-५२)।
अनुवाद-"वही परिग्रहरहित अचेल जिनकल्प (साध्वाचार) अंगीकार क्यों नहीं किया जाता है? --- मैं उसे अंगीकार करूँगा। मोक्षार्थी को वही निष्परिग्रह जिनकल्प धारण करना चाहिए। यह परिग्रह तो कषाय, भय, मूर्छा आदि दोषों का कारण है। अतः इस अनर्थ के कारणभूत परिग्रह से क्या लाभ? इसीलिए श्रुत में परिग्रह के त्याग का उपदेश दिया गया है। जिनेन्द्र भी अचेलक थे, अतः अचेलता ही सुन्दर (हितकर) है। गुरु के द्वारा---समझाये जाने पर भी---उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी और वस्त्र त्यागकर (दिगम्बरवेश धारण कर) चला गया।"
शिवभूति के इन वचनों से स्पष्ट है कि उसने श्रुत में (जिनेन्द्र द्वारा) उपदिष्ट और तीर्थंकरों द्वारा अंगीकृत अचेलकधर्म को ही अपनाया था, स्वयं किसी नये धर्म का प्रवर्तन नहीं किया था। अतः सिद्ध है कि 'आवश्यकनियुक्ति' आदि में जिसे बोटिकमत (दिगम्बरमत) कहा गया है, वह उतना ही प्राचीन है, जितना श्रुत या तीर्थंकरपरम्परा।
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