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________________ अ० ६ / प्र० २ दिगम्बर - श्वेताम्बर - भेद का इतिहास / ४७३ "यह सत्य है कि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही उत्तर भारत की निर्ग्रन्थपरम्परा के समानरूप से उत्तराधिकारी रहे हैं और इसीलिए दोनों की आगमिक परम्परा एक ही है।" (जै. ध. या.स./ पृ. १०४) । तब दिगम्बर मत कहाँ से आया ? इस प्रश्न के उत्तर में डॉक्टर सा० का कहना है कि उसकी स्थापना विक्रम की छठी शती (पाँचवीं शती ई०) में दक्षिणभारत में आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी। अपनी इस नवीन मान्यता का प्रतिपादन करते हुए वे लिखते हैं "ई० सन् की पाँचवीं - छठी शताब्दी तक जैनपरम्परा में कहीं भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था । स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ ( सवस्त्र) की मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३९४)। "कुन्दकुन्द की स्त्रीमुक्ति-निषेधक परम्परा सूदूर दक्षिण में ही प्रस्थापित हुई थी । " (जै. ध. या.स./ पृ.४०२) । वस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध ही दिगम्बर- परम्परा के लक्षण हैं। उसे कुन्दकुन्द की परम्परा कहना और ईसवी सन् की पाँचवी - छठी शती तक जैनपरम्परा स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध स्वीकार न करना तथा सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध बतलाना, इन मान्यताओं से स्पष्ट होता है कि डॉक्टर सा० ने अपने नवीनमत में यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि दिगम्बरपरम्परा की स्थापना ईसा की पाँचवीं - छठी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी । 1 किन्तु ग्रन्थ समाप्त करते-करते डॉक्टर सा० पुनः पुराने मत पर आ जाते हैं। ग्रन्थ समाप्ति के बाद लिखे गये 'लेखकीय' में वे लिखते हैं-" पाँचवीं शती के लगभग जब इस ( यापनीय) सम्प्रदाय का 'यापनीय' नामकरण हुआ, तब तक दिगम्बरसम्प्रदाय तो 'निर्ग्रन्थसम्प्रदाय' नाम से ही जाना जाता था । " (जै.ध. या.स./ लेखकीय / पृ.VI) पाँचवीं शताब्दी तक दिगम्बरसम्प्रदाय का निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध होना, इस बात का प्रमाण है कि वह पाँचवीं शताब्दी के बहुत पहले से प्रवर्तमान था अर्थात् उसके प्रवर्तक कुन्दकुन्द नहीं थे। इस प्रकार डॉक्टर सा० ने अपना ग्रन्थ समाप्त करते-करते यह मत निरस्त कर दिया कि दिगम्बरमत की स्थापना आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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