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४७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०६/प्र०२ कुछ प्रबुद्ध मुनियों ने उसका विरोध किया। इस विरोध की फलश्रुति-स्वरूप ही उस सम्प्रदाय का जन्म हुआ, जो यापनीयों की पूर्व अवस्था थी और जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक या बोडिय कहा था।" (जै.ध.या.स./ पृ.३८६-३८७)।
डॉक्टर सा० के इस कथन से स्पष्ट होता है कि भद्रबाहुनीत श्रमणसंघ के दक्षिणभारत चले जाने पर उत्तरभारत का श्रमणसंघ एकान्त-सचेलमार्गी बन गया था। इतना ही नहीं, उसके वस्त्रपात्रादि परिग्रह में बेतहाशा वृद्धि हो गई। उसी एकान्तसचेलमार्गी श्रमणसंघ से सचेलाचेलमार्गी यापनीयसंघ का उद्भव हुआ था।
इस प्रकार डॉक्टर सा० के अनुसार भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थसंघ में ईसापूर्व चौथी शताब्दी में दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद ने जन्म लिया था। इनमें दिगम्बरसम्प्रदाय एकान्त-अचेलमार्गी था और श्वेताम्बरसम्प्रदाय एकान्त-सचेलमार्गी। एकान्त-सचेलमार्गी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय से सचेलाचेलमार्गी यापनीयसंघ प्रकट हुआ।
किन्तु आगे चलकर डॉक्टर सा० उसी ग्रन्थ में अपना यह मत बदल देते हैं और कहते हैं कि भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट तीर्थ एकान्त-अचेलमुक्तिवादी नहीं था, अपितु सचेलाचेलमुक्तिवादी था। यह मत उनके निम्नलिखित शब्दों से प्रकट होता है
"महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थसंघ में नग्नता का एकान्त आग्रह नहीं था, किन्तु उसे अपवादरूप में ही स्वीकृत किया गया था।" (जै.ध.या.स./ पृ. २५)।
"वस्तुतः महावीर के पश्चात् उनके संघ में वस्त्रपात्र ग्रहण करने का क्रमशः विकास हुआ है। क्षुल्लकों (युवा साधुओं) और सदोष लिंगवाले व्यक्तियों अथवा राजपरिवार से आये व्यक्तियों के लिए अपवादरूप से वस्त्र रखने का अनुमति पहले से ही थी, किन्तु जिनकल्प का विच्छेद मान कर जब सचेलता सामान्य नियम बनने लगी, तो शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्गमार्ग स्थापित करने का प्रयत्न किया।" (जै.ध.या.स./ पृ.२५)।
फिर वे यह धारणा उत्पन्न करते हैं कि ईसापूर्व चौथी शती में महावीर का यह सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदायों में विभाजित नहीं हुआ था, अपितु द्वितीय शती ई० (वीर नि० सं० ६०९) में उससे श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई थी। देखिए उनके शब्द
"वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्रपात्र आदि में वृद्धि होने लगी और अचेलत्व की प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, तब उससे अचेलता के पक्षधर यापनीय ओर सचेलता के पक्ष-धर श्वेताम्बर ऐसी दो धाराएँ निकलीं।" (जै.ध.या.स/ पृ.२४)।
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